Thursday, 26 November 2015

जातिवाद का उपाय तथा एकसंघ भारत

जयभिम बंधुओ,

खुद्शहजी के लेख एवं विशय दॊनो उचित हि है. आरक्षण  लाभार्थी आरक्षण के लाभ  उपरांत अपनी अपने समाज के प्रति जिम्मेदारियों को आसानीसे दुर्लक्षित  कर देते है. परमपूज्य डॉ. बाबासाहेब का आरक्षण से उद्देश्य था  की, लाभार्थी अपने समाज को प्रगति सन्मुख करे, उन्हें प्रगति और अधोगति के कारणों से अवगत कराये. उनको उनके मानवी अधिकारोसे परिचित कराकर उन्हें प्रगतिपथ पर चलने के लिए एवं मानवी अधिकार पाने के लिए निरंतर प्रेरित करते रहे. इससे वे अपने जीवन को भलीभांति प्रगति की और ले जा सकेंगे।  तथा छुआछूत मिटाके विकासभिन्मुख समाज का निर्माण कर अपने भारत देश की भी सेवा करेंगे. क्योंकि सर्वअहितकारिणी चार्तुवर्णी व्यवस्था भारत को अनेको प्रकार से विकसाभिमुख होने से अनेको शतकों से  रोकती आ रही से.  परंतु आरक्षण से लाभान्वित पिछड़ा वर्ग अपने कर्तव्य  रहा है. ये एक समस्या है, पर अभी तक हम ने समस्या के जड तक नहीं पोहोंचे है। आरक्षण के लाभार्थी तो बुद्धिमान मनुष्य ही है. हमारी तरह उनका शरीर भी मन के हिसाब से ही चलता है.
तो समस्या तो मानसिक ही होगी।

 तुलना के तोर पर देखे कि, किसी व्यक्ती को बाजार से सामान लाना है. और बाजार में दो प्रमुख दुकाने है. एक पर तो भारी भीड़ उमड़ पड़ी है. पर दूसरी तो बिलकुल ही सुनसान है. तो साधारण मनुष्य तो पहिली वालीपे है जायेगा, भले भीड़ में अनेक कष्ट क्यों न उठाने पड़े. ठीक वैसे है, बुद्धिमान परंतु पथभ्रष्ट आरक्षण के लाभार्थी तथा वंचित दोनों की विचारसरणी समान है. भीड़ जहा वहा का सामान ताजा एवं किफायती ही होगा; क्योंकि अनेक लोग लाभ उठा रहे है ना !!. ये तो सामान्य मानवी स्वभाव है, क्योंकि मनुष्य तो सामाजिक प्राणि है, उसे समाज में रहना पसंद  है। उस में भी वो उसी समाज का चयन करेगा, जो शक्तिशाली हो और उसको सुरक्षा-सन्मान दे सके.

ठीक वैसे ही, पथभ्रष्ट-कृतघ्न लाभार्थी दलितों की स्थिति है. उन्हें जहा भीड़ दिखती है वहा दौड़ते है. और तो और इस ज़माने में कोन अपने आप को दलित-अछूत कहना या कहलवाना पसंद करेगा. जब की दलित शब्द द्योतक है अपमान, अशुभमुलक, गुलाम लायक, छू-अछूत लायक , उच्च-नीच भेदभाव का स्मरणरूप!!! अगर कोई  कहे की में दलित हुँ, निश्चित ही उसी क्षण से ही औरों की दॄष्टि में सन्मान खोने की संभावना अधिक है. इसके साथ दलितों के न्यूनगंड कारण तो उन्हें को फिर से गुलाम बनाना बड़ा सहज होता है.   शक्तिशाली समाज में तो जात छुपाने पर सन्मान भी तो मिलता है. कोन साहेब कहेगा की में दलित हु? साहब की तो छोडो, प्यून तक नहीं कहेगा की में दलित हु. क्योंकि की इससे सुरक्षितता एवं सन्मान नहीं मिलेगा. खास कर कि तब, जब की आज आधुनिक वर्ग में  भी आरक्षण एवं जातीयवाद के कारण उठाव हो कर दलितों पर अनेको आतंकी अत्याचार हो रहे हो।  पथभ्रष्ट दलित लाभार्थीयोंकि सोच जिनसे वो अपनी सही जाती/वर्ग,  उनका सही तारणहार, उनकी कर्तव्यवृत्ति छुपाये हुए है उसका कारण यही है, की जाती/तारणहार/कर्तव्यवृत्ति क उजागर करने पर लोग उन्हें निकम्मा,  समाज का बोझ,  सिर  उठाके चलनेवाला गुलाम समझेंगे। उनसे नौकरी-व्यवसाय में समानता-बढ़ोत्री  नहीं देंगे, न उन्हें किसी काम का लायक मानेंगे, उसे उस की मनपसंद ऊँचे जात की रुपसुन्दरी कन्या नहीं मिलेगी और अपने बहेना  विवाह  चिंता भी सतायेगी. और हो सकता है की सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ेगा. तो कैसे इस बहिष्कार एवं अपमानजनक  दुर्व्यवहार से बचे? तो सुरक्षितता के कारण जात छिपाते है और अपने सामाजिक कर्तव्यों  से मुख मोड़ लेते है .इसीलिए सुरक्षितता व सन्मान पाने के लिए अपने को दलित न कहना एवं दलित प्रगति अभियान से दूर रेहना भले ही कृतघ्नता है, पर इसके बिना उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध ही नहीं है!  क्योंकि गावों में दिनदहाड़े और शहरों में कूटनीति से अन्याय और अत्याचार बिखरे हुए दलितों पर हो है.

इसके बचाव एवं मनुष्य-समानता जागृति पर काम धीमी गति से हो रहा है. इसीलिए कृतज्ञ, प्रगतिशुर एवं इतिहास जाननेवाले दलित तो प्रगति और जातपात नष्ट करनेवाली व्यवस्था बनाने के लिए अन्य दलितोंकी (खास कर के पथभ्रष्ट दलित लाभार्थीयों की) मदत एवं जागृति चाहते है।  जो पूर्ण रूप से उचित भी है. पर ऊपर बताने वाले कारणों के कारण नहीं हो पा  रहा है. क्यों की जैसे ही दलित शब्द आता  है, व्यक्ति  असुरक्षितता (सामाजिक एवं आर्थिक जैसे नौकरी-व्यवसाय ) व अपमानजन्य बर्ताव से कमजोर बन जाता है. तो पथभ्रष्ट, जाट छुपानेवाले लाभार्थी दलित और प्रगतिशुर-कृतज्ञ दलित दोनों की स्थितियां भिन्न है. पर हमें तो उत्तर खोजना है की क्या करे जिससे दोनों ही बाबासाहब की अपेक्षा को पूरा करके समस्त समाज से ऊचनीच का विष को नष्ट करे.



तो सही उपाय क्या है, यह सोचना चाहिए. पर इस लिए अधिक मेहनत की जरूरत  नहीं है. परमपूज्य बाबासाहब ने तो इस परिपूर्ण तथा परिशुद्ध उपाय हमें पहले से ही दे चुके है. हमें दलित शब्द ही हमारे जीवन से निकालना होगा।  उदहारण स्वरूप, अंधेरा शब्द ये बताता है, की वह एक अनचाही स्थिति है, जो उजाले के आभाव से ही होती। उजाला प्रगति का स्वरूप है, अंधेरा नही. जब प्रत्येक जगह प्रकाश होगा, अंधेरा हि नही है, तो अंधेरा शब्द ही लोगो की स्मरण से मिट जाएगा.

ठीक वही भावना सवर्ण-अवर्ण(दलित) के बारे में है.  जैसे ही ये नकारार्थी/गुलामीदर्शक  शब्द प्रगति योजना से दूर होगा, लोगो का अपमान/प्रतारणा नहीं होगी, और सामाजिक सन्मान बढ़ेगा और असुरक्षितता दूर होगी, क्योंकि अब एक समाज प्रगति कर रहा है, दलित समाज नही. क्योंकि 'दलित समाज प्रगति कर रहा है, याने मेरा गुलाम प्रगति कर रहा है' ये भावना ही क्रोध को जन्म नहीं देगी. तो होगा यु की जिन जातीयवादी व्यक्तियोंसे हानि होने वाली थी, उनका अहंकार जगाने वाले कारण को हमने दूर कर दिया है. 'पिछड़ा समाज प्रगति कर रहा है.' तो पिछड़े वर्ग को हानि न होने की संभवतः अधिक होगी की, क्योंकि जिस शब्द से मल्कियत एवं गुलामी का संभव है, उस घृणास्पद एवं अहंकार जगानेवाले 'दलित' शब्द को हमने प्रगतियोजना के शब्दकोश से अपनी और से मिटा दिया है.

क्या होगा इस शब्द मिटाने से? आज की मनोविज्ञान के आधार पर आप जो सोचते हो, वैसे ही आपका बर्ताव, आचरण एवं समाज में प्रतिमा बनती रहती है. 'में एक दलित/अछूत हुँ, और में दलित/अछूतों की लिए काम करता हूँ.' तो इस वाक्य से मेने मान ही लिया है की में समाज की एक कमजोर कड़ी हू।  ये कमजोरी अपने आचरण, विचार, आपसी संबध एवं योजनाओं में सहज चली आती है. न्यूनगंड बनता रहता है. और कौन चाहेगा की इस दुनिया मे  में कमजोर बनु? कोई नहीं न, तो क्यों न मिटाये इसी अंधकार को? इस गुलामीदर्शक एवं अहंकारकारक शब्द को?

इस स्पष्टीकरण से दलित शब्द का प्रयोग कर के, हम स्वयं ही प्रगति से जुड़े हुए लोगो की प्रतारणा कर रहे है, अपमान कर रहे है. क्या ऐसा हो सकता है, पिछडे वर्ग एकजुट हो पर बिना दलित शब्द का प्रयोग किये? हो सकता है!!

ये हाल तो है अधिकांश लोगो का! समाज में ऐसे भी है, जो ये सोचते है की अगर मेने बाबासाहब के आरक्षण ला लाभ उठाने पर जो  हुआ है उसके बदले बाबासाहेब की लाभर्थियोंसे परोपकार की अपेक्षा है, उसे पूरा नहीं करूंगा  तो मेरा क्या  बिगड़ेगा? कौन  पकड़ेगा मुझे या कौन  दोष देगा? तो ऐसे लोगो की बीमारी को कोसने से गाली  देने से क्या दूर होगी? उन्हें आत्मज्ञान/आत्मपरीक्षण ही करना होगा न? तो उसके लिए प्रेम से अकुशल कुशल कर्मो के परिणामों  से अवगत करने की लिए आईना  दिखाना होगा।  मन का आईना, विपश्यना विद्या सीखकर दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों से अवगत व उत्साही बनाना होगा. 



बाबासाहब ने जीवन के अंतिम चरण में, दलित शब्द मिटाने की, मनुष्य को आत्मनिर्भर एवं विज्ञानंप्रेमी बनाने की एवं भारत को एकसंघ बनाने के लिए १४ अक्टूबर १९५६ में प्रगति योेजना की नीव रखी थी. मेरे विचार से इसी से ही सन्मान, स्फूर्ति, आत्मबल, सुरक्षितता, मनोविकार, एकता, विज्ञानप्रेम एवं दलित/अछूत शब्दों से मुक्ति मिलेगी. इसीसे आरक्षण लाभार्थी पुनः अपने प्रगतिशुर बंधुओ का भार ढाने में मदत कर पायेँगे.

इस यशस्वी संकल्पना पर पुर्नविचार हो ये सबको आवाहन है.


भवतु सब्ब मंगलं!

संबोधन धम्मपथी















Saturday, 5 September 2015

शोले चित्रपटातून शील वृध्दी

शोले चित्रपटातून शील वृध्दी 

मनुष्याच्या स्वभावावरती इतर बाह्य गोष्टीसोबत  चित्रपटांचा फार प्रभाव आहे. चित्रपट त्या त्या प्रेक्षकवर्गाच्या संस्कृती, चालीरीती, आचारविचार, व वेशभूषा खूप परिणाम करतात. त्यातला समाज मनावर खूप प्रभाव असलेला चित्रपटातून मी काय धम्म शिकलो, ते मांडत आहे. बुद्धाशिष्याने मनोरंजनाशीच काय कुठल्याही घटक/घटनेशी संपर्क आला कि स्मृतीमान राहुन त्यास्थितीची तुलना धर्माच्या विविध मुल्यांशी केली पाहिजे. अशाप्रकारे स्वता:तील असलेले गुण टिकवले व नवीन गुण मिळवले पाहिजे. तसेच स्वतःतील असलेले दुर्गुण ओळखून ते दूर करण्याचा व नसलेले दुर्गुण कधीही स्वभावात न येण्याचा निरंतर प्रयत्न केला पाहिजे. हाच तर सम्यक व्यायाम आहे.

ह्या चित्रपटात भलेबुरे पात्र आहेत. बोधिपथावर शीलपालन हे पहिले पाउल आहे; त्या नंतर समाधि व प्रज्ञा हि स्टेशने येतात. पण बऱ्याचदा गाडी  पहिल्या स्टेशनावरच फसते. तेव्हा शील पालनाचा धडा पुन्हा गिरवावा लागतो. 

शोलेच्या एका घटनेवरून शील पालनाचा काही संयम व युक्ती कमवुया. कथेतील पात्र जय-वीरु हे बेवारस व जगात कुणीच नातेवाइक नसलेले चोर व जीवाभावाचे मित्र असतात. वीरु जयकडे बसंतीसोबत लग्नाचा विचार मांडतो. त्यावर जय न कचरता (मुसावादा वेरमणी सिखापदं समादियामी - स्पष्ट बोलणे ) वीरुने आत्तापर्यंत अनेक मुलींसोबत लग्नाच्या आणाभाका घेतल्याची आठवण करून देतो. खऱ्या  मित्राने अशाच  प्रकारे संयमाने आपल्या मित्राचे दुर्गुण त्याला योग्य समयी व योग्य वेळी दाखवुन दिले पाहिजे. मैत्री टिकवण्यासाठी खोटे बोले नये व मित्रासाठी इतरांचे नुकसान करू नये. 

यावर वीरु जयला सध्याचा विचार गंभीर व अंतिम आहे असे सांगतो. असे आश्वासन देवून देखील जय त्याच्यासाठी लग्नाची बोलणी करण्यास नकार देतो. कारण जयला  वीरूचा स्वभाव माहिती असल्याने स्वताच्या मित्राची (आसक्ती/मोह/पुरुषसुलभ भावना किंवा प्रेम ) यांची तमा न बाळगता त्याच्याकडे चांगल्या वराकडे आवश्यक असणाऱ्या  गोष्टीची पाहणी करतो. ह्या पाहणीत त्याला असमाधानकारक उत्तर मिळते. तेव्हा तो वीरुला नकार देतो. आपल्याकडे हे असे होत नाही, कारण माझ्या मुलगा/मुलीला तिच्या/त्याच्या पेक्शा जास्त चांगला व लायक वर मिळावा  अशी आपली अपेक्षा असते. त्यासाठी स्वतःच्या मुलगा/मुलीचे  काही गुणही लपविले जातात; तसेच काही गुण वाढवून सांगितले जातात. का? कारण चांगले स्थळ हातातून जावू नये म्हणुन. तसेच स्पष्ट व्यक्त्या व खरे बोलणाऱ्या  माणसाला अशा प्रसंगी सोबतही नेत नाहीत उगाच गडबड नको म्हणुन. 

काही जण म्हणतात प्रेमात व युद्धात सर्व काही माफ असते; पण बुद्ध म्हणतात प्रेमात व युद्धातच माणसातील खरे सद्गुण व नैतिकतेची खरी परीक्षा असते. त्यामुळे अशावेळी जर तुम्ही शील पालन नाही केले तर समजावे कि तुमचे शील अजून खूप कच्चे आहे. त्यामुळे चोर असूनही आपल्या जगातील एकमेव सहकाऱ्यासाठी तो एका कर्तबगार व मेहनती मुलीच्या आयुष्याशी न खेळण्याचा योग्य निर्णय घेतो. येथे शीलाचा विजय होतो. पण वीरुनेही खूप आग्रह केल्यावर जयची  अडचण होते. कि याचे नाते घेवून जायचे तर तिच्या पालकाला (मावशीला) सांगायचे काय? याचे गाव कुठले? कुटुंब ? पगार? स्वभाव? घर? व्यसन? गुण? एकही तर बाजु सकारात्मक नाही. अशाच कात्रीत बऱ्याचदा पंचशीलाचे पालन करणारा सापडतो. त्यावर त्यास शील व बुद्धिमत्ता वापरुन परिस्थिती नेसर योग्य निर्णय घ्यावा लागतो. येथे जरी जय वास्तवात चोर असला तरीही, त्याने जेवढे जमेल तेव्हढे शील पालन केले आहे. कारण त्याला एका चांगल्या मुलीचे आयुष्य हि वाया घालवायचे नाही व स्वतःच्या प्रेमासक्त तसेच व्यसनी मित्राला चांगले गृहस्थ जीवन जगण्याच्या अधिकाराविषयीही बोलायचे आहे. 

अशा कठीण प्रसंगी समाधि आपल्याला मन एकाग्र करीत समस्या समजून घेण्यास मदत करते. व प्रज्ञा निर्णय घेतेवेळी दुर्गुणांना सद्गुणांवर विजय न मिळवायची क्षमता प्रदान करते. मी काही चुकीचे तर करीत नाही ना? मी मित्रा खातर किंवा स्वतःसाठी कोणाला फसवीत तर नाही ना? जयने समाधि  व प्रज्ञेचा  अभ्यास केलेला चित्रपटात दाखविलेला नाही. पण आपल्या जीवनात आसपास काही साधारण व्यक्ती ही समाधि  व प्रज्ञेचा  अभ्यास केलेला नसताना  उत्तम धैर्य व बुद्धिमत्ता दखवितात.जय मावशीकडे मित्राचा हात मागायला जातो. कदाचित मागील एखाद्या जन्मात (आत्म्याशिवाय पुर्नजन्म) समाधि  व प्रज्ञेचा  अभ्यास केलेला असण्याची शक्याता नाकारता येत नाही,  कारण तेव्हाच तर अशी संयमीनिर्णय घेण्याची क्षमता येते. आणि ज्यांनी विपश्यना करीत समाधि व प्रज्ञेचा अभ्यास व्यवस्थित केला त्यांना तर धैर्य उत्तमच साधता येते.

जय मावशीकडे मित्रासाठी बसंतीचा हात मागायला जातो. स्वाभाविकच त्या अनोळखी तरुणाशी मावशी चौकशी करते. धर्म चर्चेसाठी सविस्तर देत आहे. कुशल-मंगल विचारल्यावर पुढील संवाद असा:

मावशी: किती कमावतो मुलगा?
जय: आता काय बोलू मावशी, एकदा का बायको मुलांची जबाबदारी अंगावर पडली कि कमवायला ही लागेल.

(असे बोलून जयने  खऱ्याने सुरुवात केली. वीरूचा कामचुकार पणा सांगितला; पण सोबत वीरूच्या प्रेमळ मनाचीही खात्री दिली. )
मावशी: मग आता काहीच कमवित नाही?
जय : नाही. मीअसे कधी म्हणालो? पण काय करणार जुगार हा प्रकारच असा आहे, रोज रोज तर जिंकत नाही ना माणुस! कधी कधी हरतो सुद्धा.
(आता इथे जय जरी वीरूचे नाते घेवून आला असला तरी टप्प्याटप्प्याने वीरूच्या स्वभावातील गुण-दोष मावशीला झेपू शकेल एवढ्या शांत व सहज रीत्या सांगण्याचा प्रयत्न आहे. कारण मित्राचे घर व्हावे हे त्यालाही वाटत असणार.)

मावशी: हं… म्हणजे मुलगा जुगारी आहे?
जय : छे छे तो तर खुपच चांगला व गुणी मुलगा आहे. हो पण एकदा का दारु पिला तर चांगल्या वाईटाचे काही कळत नाही. (इथेही मनोरंजनाच्या एक सहज सामाजिक व मंगल संदेश मिळला आहे. कि दारु पिल्यावर त्यालाच काय कोणालाही काही कळत नाही) आता त्यांनंतर बसविले कोणी जुगार खेळायला तर त्यात बिचाऱ्या  वीरूचा काय दोष? (दोन वाईट गोष्टींचा संबंध बघा, जुगाराचा नाद हा  बेहोषीत असताना लागतो. दारु प्पिल्याने नशा येते. जसे थेंबे थेंबे पाणी साचते तसेच थोडेसे ही कुकर्म, नवीन कुकर्माला प्रोत्साहन देते, जन्म देते, बळ देते.  आता इथे जयने तोंडाने तर बाजु घेतली आहे, पण त्याचा उद्देश्य तर मावशीपासुन सत्य न लपविण्याचा आहे. मित्राची बाजु मांडणे  व त्याचवेळी एका होतकरु, कर्तबगार मुलीच्या आयुष्याशी  ही त्याला खेळायचे नाही आहे. अशा धर्म संकटात त्याने अशा प्रकारे चलाखीने सामना केला आहे. आपल्यालाही जीवनात अशा चलाखीने सामना करायला शिकायला हवे.)
मावशी : खरे बोलतो रे तू बाबा. दारुडा तो व जुगारी तो पण त्यात त्याचा काही दोष नाही.

(भ. बुद्ध म्हणतात, "अत्त ही अत्तनो  नाथो, अत्त हि अत्तनो गती" स्वताच्या दशेला व प्रगतीच्या (धार्मिक व व्य्यावहारिक) गतीला मनुष्य स्वतःच जबाबदार असतो. त्यांमुळे तुझ्या वर्तमानकाळाचा व भविष्यकाळाचा तूच विधाता आहेस. कारण कर्म (शारीरिक, मानसिक व वाचिक) तर कळत-नकळत किंवा मजबुरीने तूच करीत असतोस. तथागत हि कर्मे निर्दोष राहावीत  तुला  मार्गदर्शन नक्की करू शकतात. पण त्यावर चालावे तर तुलाच लागेल. जसे ज्याला तहान लागते, पाणीही त्यालाच प्यावे लागते. )

जय : मावशी तुम्ही माझ्या म्नित्राबद्दल गैरसमज करीत आहात. एकदा का त्याचे लग्न बसंतीशी झाले, तर हि जुगारीचि सवय तर दोन दिवसातच सुटून जाईल.
(हा महान व मोठा गैरसमज किंवा भाबडा आशावाद लग्न जुळवताना असतो. त्यामुळे मुलाची काही त्याज्य  दुर्लक्षित केली जातात. आणि त्या समज किंवा भाबडा आशावादाचा फटका आयुष्यभर त्या मुलीला भोगावा लागतो. कारण लग्न करताना जीवनसाथी किती निर्दोष, व्यवहारी व कर्तबगार आहे हे न बघता तो किती पैसेवाला, जात/धर्म वगैरे, किती गोरा/गोरी, किती शिकलेला, जमीन/बंगला किती? यावर जास्त लक्ष असते. ह्यात वडिलधाऱ्या  मंडळींचा अडाणीपणा, सदचराला कमी महत्व देण्याचा स्वभाव व अधार्मिकपणा असतो.)

मावशी: अरे बाळा, मला म्ह्तारीला सागतोस? ही दारु व जुगारीची सवय कधी सुटली आहे कोणाची आतापर्यंत?
(जग बघितलेली व भाबडा आशावाद न ठेवणारी माणसे चांगली जाणतात कि असे व्यसन लागले कि ते मरेपर्यंत माणसाच्या पिच्छा सोडत नाही. ते सोडण्यासाठी मनची खंबीरता व दृढनिश्चय खूप महत्वाचा. जो विपश्याने ने साजः मिळवता येतो.)

जय : मावशी तुम्ही जायला ओळखत नाही, विश्वास करा तो अशा प्रकारचा माणूस नाही. एकदा का लग्न झाले कि तो गाण्याऱ्या  स्त्री कडे जाणे सोडून देईल. मग दारु काय आपोआपच सुटेल!! (इथेही वाईट व्यसन एकमेकांवर अवलंबुन आहेत. एक लागलीकि दुसरी लागलीच म्हणुन समजा। शील पालनात कामेसु-मिच्छाचारालाही खूप महत्व आहे. शरीराने, बोलण्याने व विचारानेही मनुष्य व्यभिचार/परस्त्रीगमन करू शकतो. अशा स्थळी चावट -आचरट व वासनेने बरबटलेले लोक जात-येत असतात.)
मावशी : अरे देवा एवढेच काय ते बाकी होते? म्हणजे त्याचे गाणाऱ्या  स्त्री कडे ही येणेजाणे आहे तर?

जय: मग त्यात काय गैर आहे? अहो गाणे-ऐकायला मोठ-मोठ्या घराणातले खानदानी राजे-राजवाडेही जात असतात. खरे सांगतो!!

(नीतीमत्ता ही इतर राजे-महाराजांच्या वागण्यावरून कशी काय ठरवावी? ज्या-ज्या कर्मांनी शारीरिक-वाची-मानसिक सदाचार वाढतो ते-ते कुशल कर्म!! व ज्या-ज्या कर्मांनी माझ्यातले दुर्गुण वाढतात ते ते अकुशल कर्म!  त्यामुळे अत्त-दीप  भव: स्वतःच स्वतःचे द्वीप व्हा! जसे जीवन्याच्या महासागरात जशी अनेक वादळे येतात, तेव्हा एक द्वीप हवा असतो जहाजाला आसऱ्या साठी! तो द्वीप बाहेर कुठे शोधावा? आंतरिक शांतीच आपल्याला आपला द्वीप मिळवुन देईल )

मावशी: मग आता  एवढे ही समः कि कुठले असे घराणे आहे तुझ्या गुणवान  मित्राचे?

(घराणे हे पैसे व प्रोपर्टी साठी न पाहता त्या घराण्याची सामाजिक भान, हुशारी नव विवाहित व तरूण जोडप्याला जीवनाच्या विविध टप्प्यावर मार्गदर्शन करण्याचीहातोटी /कसब कितीआहे यासाठी पाहावे. )

जय: बस मावशी कुळाचा पत्ता लागला कि लागलीच तुम्हाला कळवतो!
(जयची मावशीला खात्री द्यायची व्यवहार कुशलता बघा. खरे तर सांगितले पण कळल्यावर सांगु हे ही कबुल केले. )

मावशी: एका गोष्टीची दाद द्यावी लागेल,शंभर दुर्गुण असोत तुझ्या मित्रात; पण तुझ्या तोंडुन त्याची स्तुती च येत असते.

जय: काय करू मावशीमाझे मनच असे आहे.

अशा प्रकारे एका लघु कथे द्वारे जावेद अख्तर व सलीम खान यांनी समाजाला दिशा द्यायचा प्रयत्न केला आहे. तो मला पटला म्हणुन मी इथे मांडला, कारण्तिथुन मला सद्धर्माची काही मुल्ये हि दिसली.

कल्याण होवो!

संबोधन धम्मपथी 




















Wednesday, 26 August 2015

 आदि  मे कल्याण है, मध्य में कल्याण ।
अन्त में  कल्याण  है , प्रगती पथ निर्वाण ।।
- आचार्य सत्य नारायण गोयंका 

मानवी जीवनात माणसाची  निरनिराळी लक्ष जीवनाच्या वेगवेगळ्या टप्यावर  असतात. आणि माणसाचे लक्ष सहसा दूर असतें व त्यासाठी निरंतर प्रयत्न करावे लागतात. जो पर्यंत लक्ष भेटत नाही तो पर्यंत सुख-शांती बहुधा मिळत नाही. पण सद्धर्माच्या राजरस्त्याची गोष्ट  वेगळी आहे. कारण मनुष्य जसजसा चालायला लागतो तसातसा सुख शांतीचा स्वानुभव प्रत्येक पदोपदी घेत राहतो. जर धर्म खरा असेल तर त्या क्षणी सुख शांती मिळायला हवी. म्रुत्युनंतर मिळणारी शांतीतर  तपासता येत  नाही, मग ती बाजुला ठेवुया. 

सद्धर्माचा रस्त्यात तर फक्त तीनच गोष्टी करायच्या असतात, फक्त तीनच!!  शील,समाधि  व प्रज्ञा . जसे एखादाप्रवास करताना पहिल्यांदा प्रत्येकाला टीकिट काढावेच लागते व तेव्हाच प्रवासाला सुरुवात करता येते. त्याच प्रमाणे सद्धर्माच्या राजमार्गावर पहिले व सुरुवातीचे पाऊल म्हणजे शील-सदाचाराचा स्वीकार. कुशल काम करणार्या व्यक्ती धम्माच्या राजमार्गावर खुप लवकर प्रगती करतात. अकुशल कर्म करणार्या व्यक्तीस स्वताला शील-सदाचाराचे जीवन स्वीकारावे लागते, पंचशीलाचे काटेकोर पणे  करण्याची प्रतिद्न्याच घ्यावी लागते। पण साधक अशी प्रतिज्ञा   इतरांना दाखविण्यासाठी नाही, तर स्वताला धम्माच्या मार्गावर काही काळ तरी तपासुन व चालून पाहण्यासाठी घेतो. अकुशल कर्म करीत बैचेन झालेले मन, आचार्यांची माफी मागुन पश्चातापातुन काही (काळ का होइना) मुक्त होऊन, निर्दोष व शांत जीवनासाठी  नवी सुरुवात करते.   आता मी पांच शील नव्याने घेवून नवीन प्रयत्न करीत आहे.  नव्या जोमाने व उत्साहाने ध्यान करण्यास किंवा जीवन जगण्यास सुरुवात करते. ह्या नवीन उत्साह व जोम व अकुशल कर्माबाबत क्षमा मिळाल्यावर शांती मिळते. पंचशील पालन करीत असल्याने आता अकुशल कर्मांपासुन मनुष्य दूर गेलेला असतो. आणि त्यामुळे आता मी वाईट कर्मे करीत नाही हे जाणुन मनातील अनामिक भीतीची जागा आनंद घेतो. असे धर्मात सुरुवातीलाच कल्याण साधले जाते. 


पण मनाचा जुना  स्वभाव हा सहजा सहजी बदलत नाही. बैचेन व्हायचा व अकुशल कर्म करायचा जुना स्वभाव आपणास  नेहमी व्याकुळ करतो, खास करून शील पालन करते वेळी. मनात जसे विचारांचे वादळ नेहमीच सुरु असते. आपण काम एक करतो आणी मनात विचार दुसरा सुरु असतो. अशा वेळी साधकाला धर्माचे पूढील  पाउल शिकवितात: समाधि . जसे कधी पाण्यातील माती पाहण्यासाठी पाण्याला शांत होऊ द्यावे लागते, तसेच मनातील विविध अकुशल विचार दूर करण्यासाठी त्याला शांत  खूप गरजेचे असते. कारण आपल्या  मनाचे ओपरेशन आपल्या मनालाच करायचे असते. त्यामुळे मन जे दिशा दाखविल त्या दिशेकडे दुर्लक्ष करून, आपले लक्ष फक्त आपल्या स्वताच्या शुद्ध व नैसर्गिक श्वासकडे ठेवायला सांगितले जाते (आनापान सति   विद्या). नेहमीच विविध दिशेत भटकणार्या मनाला लगाम घालुन स्वताच्या श्वासावर  राहण्याचे शिकविले जाते. त्यामुळे विविध प्रिय-अप्रिय आणि वर्तमान व भुतकाळातील घटनांच्यामागे मागे पळणार्या मनाला शांत राहत वर्तमानकाळात म्हणजेच ह्या क्षणाचा परिपूर्ण विचार करण्यासाठी शिकविले जाते. अशाने श्वासाद्वारे केंद्रित झालेले मन खुप मानसिक शांती देते. अशा प्रकारे धर्माचे दुसरे पाउल सुद्धा खूप कल्याणकारी असते. 

पण तरी सुद्धा ही शांती कायमची नसते. कारण ध्यान करून उठले कि इतरांशी वागताना जुना क्रोधी, अहंकारी, लोभी व पश्चाताप करणारा स्वभाव कायम असतो. अशा स्वभावाची मुळे अंर्तमानात खोल खूप खोल रुजलेली असतात. त्यामूळे ती दूर करण्यासाठी साधकाला प्रज्ञा शिकविली जाते. प्रज्ञा म्हणजे प्रत्यक्ष ज्ञान, शरीर व मनाच्या क्रियाप्रक्रियांचे प्रत्यक्ष ज्ञान. तेव्हाच साधक  मुळ स्वभावाला सामोरे जातो. काय आहे माझा स्वभाव? साधकाला हे कळू लागते कि, कुठले ही अकुशल कर्म करण्यापुर्वी मला मनात  लोभ,वासना, ईर्ष्या व मत्सर किंवा क्रोध उत्पन्न करावाच लागतो, त्याशिवाय अकुशल कर्म वाणी किंवा शरीराद्वारे होत नाही. आणि ते अकुशल कर्म केल्यावर इतरांना माझ्यापासून त्रास तर  नंतर होतो, पहिल्यांदा मलाच जबरदस्त त्रास होतो. मी अत्यंत व्याकुळ व धडधडत  असतो. असे जाणल्यावर नवीन दुष्कर्म होत नाही, व जुन्या दुष्कर्माची सवय/आठवण उफाळुन आली कि मी शरीर व मनाच्या संवेदनांकडे सजगतेने व साक्षीभावाने (तटस्थपणे) व समता ठेवून (ना लोभ जागविता व ना द्वेष/क्रोध जागविता) पाहत जुन्या अकुशल आठवणींचा शरीर व मनावरचा दुष्परिणाम दूर करतो. आता अविचारांच्या आगीला नवीन जळण मिळत नाही, व जुने दुष्कर्मे साक्षी भावाने पाहत दूर होतात. हा शरीर व मनाचा खेळ दर सेकंदाला सुरु होतो व संपतो. हे उत्पन्न व नष्ट  होण्याचे ज्ञान साधकाला विपश्याने द्वारे  स्वकष्टानेच मिळते. अशा प्रकारे जुने संस्कार जे व्याकुळ बनवितात दूर झाल्याने महान व मंगल शांती मिळते. म्हणुन धर्माचे हे अंतिम पाउल ही खुप कल्याणकारी आहे याची प्रचिती साधकाला येते. कष्ट मात्र त्यालाच घ्यावे लागतात, इतर कोणी माझ्या मनाची सफाई करेल हे केवळ अशक्य आहे. 

अशा प्रकारे धर्माचे  पाउल (शील-सदाचार ), मधले पाउल (समाधि - कुशल मनाची एकाग्रता) व अंतिम पाऊल प्रज्ञा हे तिन्ही महत्वाचे व कल्याणाकडे नेणारी पाऊले आहेत. हाच तर खरा प्रगतीचा एकमेव राजपथ/राजमार्ग आहे. साधकाने ही पाऊले वाचुन व ऐकूनच समाधान न मानता स्वतः तपासून पहावी, कि खरच असे होते का? तेव्हाच तर विश्वास होईल व त्यानंतर गंभीर रीत्या साधना केल्यावर आपण खरे तर मुक्तीपथ/प्रगतीपथ  निर्वाण (कायम स्वरुपी निर्दोष जीवनाचे सुख) आपणास मिळु शकेल. 

स्पष्टीकरण : संबोधन धम्मपथी 

Saturday, 4 July 2015

शुद्ध धर्म ऐसा जगे, होवे चित्त विशुद्ध| 
बौद्ध बने या न बने, मानव बने प्रबुद्ध||
-सत्य नारायण गोयंका 

भगवंतांनी धम्म हा काही विशेष मानवी समुहासाठी बनविलेला नाही। जर  फक्त विशेष मानवी समुहासाठी असता तर तथागत महाकारुणिक कसे म्हणविले गेले असते? निसर्ग नियम तर सगळ्यांना समान लागु होतात. पण धम्माच्या ह्या वैश्विक उपयोगामुळे बौद्ध संप्रदायात किंवा एखाद्या बौद्ध व्यक्तीत स्वतः बौद्ध असल्याचा अहंकार अलगद व नकळत उत्पन्न होऊ शकतो. हा अहंकार कि आमचा भगवानसर्वात श्रेष्ठ व इतरांचे  हलके किंवा कनिष्ठ . जसे एखादे भव्य ग्रंथालय असावे त्यातील मोठे मोठे ग्रंथ पाहुन तेथील ग्रंथापल चकित व गर्विष्ठ व्हावा कि मी जिथे काम करतो, ते ग्रंथालय सर्वात मोठे व मी सर्वात मोठा ग्रंथपाल व  सर्वात मोठा . पण त्याने एकही ग्रंथ न वाचावा. पण इतर ग्रंथालयांना व त्यांच्या ग्रंथपालांना हीन लेखावे. तर आयुष्यभर त्याची अवस्था  उपयुक्त गोड तळ्याकाठी बसून त्याच्या पाण्याची स्तुती करीत जीवन घालवावे पण एकदाही पाणी चाखुन न प्यावे अशा दुर्दैवी माणसासारखी होइल. 

बुद्ध हे एक शिक्षक होते, पण म्हणुन फक्त काही बौद्ध झाल्यानेच निर्वाण मिळत नाही. मग कशाने निर्वाण मिळु शकेल?

आणि जर का निर्वाण उपयोगी असेल तर का त्याने एकच  माणुस सुखी होतो का? नाही!! ज्यास धम्मात प्रगती केल्यामुळे थोडी बहुत क्षांती मिळु लागली अशी व्यक्ती इतरांशी आनंदाने, न्यायाने,  विचार्पुर्वक व उत्साहपूर्वक वागते. त्यामुळे आपोआप आसपासच्या व्यक्तींना  होतोच. पण हे गुण नुसत्या बौद्ध झाल्यावर मिळत नसतात. 

 प्रत्येक माणुस (प्रत्येक बौद्धही) प्रत्येक घटनेला, स्वभावा प्रमाणे: अमके मला आवडते व तमुक आवडत नाही, असे म्हणत प्रिय-अप्रिय गोष्टींच्या जंजाळात अडकलेला असतो. त्यामुळे भीती, वासना, चिंता व ईर्ष्या ह्या चित्तमळांना बळी पडून  दुष्कर्म करीत जातो. ह्या गोष्टीतून वाचण्यासाठी तो,पूजा- अर्चा,व्रतवैकल्य व उपास-तापास ही करतो. का कारण कि माझे दैवत बुद्ध किंवा  राम किंवा महावीर व इतर कोणी ऐतिहासिक पुरुष यांनी माझे गुन्हे/ माफ करावेत व मला हवी असलेली शांती द्यावे, सुख द्यावे. त्यासाठी अध्यात्माची पुस्तके ही वाचतो, जप-जाप करतो, असे करून काहीकाळ शांती  नक्की मिळते . पण २-३ तास झाल्यावर पुन्हा जुना स्वभाव : त्याने असे केले व त्याने तसे नाही केले; अशा प्रकारे क्रोध व अशांती पुन्हा आपल्यावर ताबा मिळवते. इतर देवताच काय पण बौद्ध लोकांचेही बुद्धाबाबत असेच होते. कारण ते अशांती चे बीज कसे व कोण पेरते? ते रोपट्याचे वृक्ष कसे बनते? त्याची विषारी फळे कशी  देतात? व ह्या वृक्षांना कसे उखाडून फेकावे याबद्दल बुद्धाने जे शिकविले त्यापासून बौद्ध ही अनभिज्ञ  असतात. म्हणुन फक्त बौद्ध बनून सुख-क्षांती मिळत नाही. 

मग कसे मिळेल निर्वाण? बुद्ध हे खुप विनम्र महापुरुष  होते. त्यांनी निर्वाण मिळण्यासाठी माझी पुजा-अर्चा, पुतळे-चित्र, जप-जाप यांची कधीही गरज सांगितली नाही. उलट असे करून  तुम्ही निर्वाणापासुन दूर जात आहात असेच सांगितले. मनुष्य जीवनात जे काही आपण भोगतो ते कर्माचेच परिणाम आहेत. कर्म  मानसिक,शारीरिक व वाचिक असतात. मनात क्रोध आल्याशिवाय शिवी देणे अशक्य असते, तसेच मनात वासना आल्याशिवाय अनैतिक/विवाहबाह्य संबंधही अशक्य असतात. त्यामुळे मनाच्या सवयींच्या आहारी न जाता मनालाच चांगल्या सवयी लावणे हेच निर्वाणाकडे जाण्याचा एकमेव रस्ता (अष्टांगिक मार्ग) आहे. म्हणुन शील-सदाचाराने वागत, मन एकाग्र करून (समाधि), मन व शरीराचे प्रत्येक क्षण बदलते स्वरूप स्वानुभातुन जाणणे (प्रज्ञा) हा तीन अंगी धर्म शिकून घ्या, विपश्यना विद्या शिकून त्यात पारंगत व्हा. त्यासाठी विशेष कर्मकांड व संप्रदाय बदलण्याची गरज नाही. कारण हिंदु, बौद्ध व इतर संप्रदायातील माणसे ही मनाचे गुलाम झाली आहेत. 

आणि  त्यातही त्रिपिटकाचा अभ्यासकांनुसार बुद्धाने कोणालाही बौद्ध बनविलेले नाही, त्यांनीतर व्यक्तिला धार्मिक, धर्माचारी व धर्मस्थ बनविले. म्हणुन त्या वेळी जो माणुस भगवंतांला शरण गेला त्याने त्याची संस्कृती सोडलेली नाही. 

त्यामुळे असे दिसून येते कि, बुद्धाने हेच सांगितले कि बौद्ध बना अथवा नका बनू, पण सद्गुणी, प्रज्ञावान माणुस बनणे हे तुमच्यासाठी व तुमच्या प्रियजनांसाठी कल्याणकारी आहे. कारण ग्रंथ न वाचुन अहंकार जागवणारा (पण ग्रंथांची  घेणारा) ग्रंथपाल कधीही ज्ञानी बनत नाही. 

-संबोधन धम्मपथी 

















Friday, 19 June 2015

भले न मन मैला करे, तन के सारे रोग। 
पर तन रोगी हो उठे, जब मन जागे रोग॥

- आचार्य सत्य नारायण गोयंका 


स्पष्टीकरण:

व्यक्ती कितीही निरोगी असली किंवा वाटली तरी शारीरिक रोगांचा सामना करावा लागतो. नेहमीच निरोगी व मजबूत वाटणारे शरीर कमकुवत व रोगी होऊन बसते. अपेक्षित हालचाली व कामे करता येत नाहीत मग वाईट वाटुन चीडचीड ( मनाची व्याकुळता) जाणवते. पण मनुष्य लवकर हार मानीत नसतो; अमुक खाल्या-पिल्याने मला आजार झाला आहे असा शोध चालु होऊन डाक्टरांच्या सल्याने उपचार सुरु चालु होतात. आज ना उद्या मी बरा होणारसा विश्वास व आशा  वाटू लागते. कारण मन सांगत असते, कि अजून मला खुप जग बघायचे आहे व खुप काही करून दाखवायचे आहे. अशा अपेक्षा शरीरातल्या रोगाला शरीरातून जाण्यासाठी धक्के मारीत असतात. शारीरिक रोगाला दूर करण्यासाठी सकारात्मक, उत्साहवर्धक व महत्वाकांक्षी विचार सैनिकासारखे लढू लागतात.इथे मन प्रगत जरी नसले तरी लोभी मात्र असते.  अशा प्रकारे "शारिरीक" रोगावर मात करण्यासाठी "मन" (…क़ारण मनातुनच वाईट तसेच सकारात्मक, प्रेरणादायी, उत्साहवर्धक व महत्वाकांक्षी  विचार जन्म घेतात.) मदत करते. आणि शारिरीक रोगांमुळे होणारी चीडचीड ही मनावर तितकासा भयानक परिणाम करीत नाही. म्हणजे एकुणच शरीराकडून येणारे रोग/विकार मनावर हे कमी हानिकारक असतात. 

एक उदाहरण घेवू: एखादी व्यक्ती नजरचुकी मुळे पडते तेव्हा जर न ओशाळता/वैतागता शांत मनाने पाहिले तर असे दिसते कि: आपण पडलो आहोत पाचव्या पायरीवर पण घसरण्याचे किंवा पडण्याचे कारण तर पहिल्याच पायरीवर होते. पाचव्या पायरीवर तर फ्क्त सध्याची पडण्याची प्रक्रिया पुर्ण झाली; वास्तवात पडायची सुरुवात तर पहिल्या पायरीवरच असताना घसरल्यामुळेच झाली होती. अशा प्रकारचे नियमीत आत्मपरीक्षण आपल्याला सांत्वन व पुन्हा न पडण्यासाठी अत्यंत उपयोगी आहे. 

आता आपण पाहिले कि शरीर रोगी असताना मनामध्ये असलेल्या सकारात्मक उर्जेमुळे, मनावर नकारात्मक परिणाम होत नाही. पण जेव्हा मन रोगी होते तेव्हा शरीरावर नकारात्मक परिणाम व्हायला सुरुवात होते. सभोवतालच्या जगाचे वागणे-बोलणे (आठ लोकधर्म: सुख-दुख, मान-अपमान, यश-अपयश, निंदा-स्तुती/कौतुक ) आपण नेहमीच अनुभवीत असतो. त्यात आणखिन भर म्हणजे आपल्या मनातूनही आपण आपलया मनातील काल्पनिक जगातील वागणे-बोलणे आठ लोकधर्मे ("त्याने असे केले किंवा नाही केले तर? माझा अपमान केला आहे." असे वाटणे ) अशा प्रकारे आपल्या मनातील घटना व बाह्य जगातील घटना आपल्या मनाला नाराज (अपेक्षाभंग झाल्यावर) न प्रसन्न (अपेक्षापुर्ती झाल्यावर) करीत असतात. पण मनोजगात  नाराज घटनांची रेख ही प्रसन्न घटनांच्या रेखेपेक्षा खुप गहरी व क्लेषकारक असते. आणि त्यात नाराजीच्या घटना प्रसन्नतेच्या घटनांपेक्षा वारंवार घटत असतात. 

पण मनाला जेव्हा वारंवार नाराजी/अपेक्षाभंगांना सामोरे जावे लागते, तेव्हा श्वास फुलणे, हृदयाची स्पंदने वाढणे, बद्धकोश्ठता, विनाकारण थकवा, पाचन ठीक न होणे, तसेच बैचेनी मुळे झोप न येणे असे अनेको रोग वाढत जातात. हे रोग जास्त काळ राहिले कि, शरीराला इतर भयानक रोगही जडतात, हे विपश्यना ध्यानात पारंगत असणारर्या लाखो साधकांच्या स्वानुभावातुन तसेच सध्याचा मेडिकल संशोधनातूनही अनेकोवेळा सिद्ध झाले आहे. शरीरावर होणारा हा परिणाम हा खुप घटक व बहुधा कायम स्वरुपी असतो. अशा नाराज मनामुळे जीवनाच्या प्रवासात आपण पाचव्या पायरीवर पडतो (पहिले आर्य सत्य: जगात दुःख आहे) पण ध्यान करून पाहिले असता असे दिसते कि, मी पडलो आहे खरा, पण पडण्याचे कारण आठ लोकधर्मांच्या बाबतीत अविद्येमुळे मनावर झालेला परीणामक आहे. मन जागरुक, मेहनती व प्रगत नसल्यामुळे त्या  पहिल्या पायरीलाच पडण्याची प्रक्रिया सुरु झाली होती (दुसरे आर्य सत्य: दुःखाला कारण आहे.) मन एकदा का जागरुक, मेहनती व प्रगत झाले कि कारण नष्ट करता येते (तिसरे आर्य सत्य: दुःख निरोध शक्य आहे) . आणि मन सजग, मेहनती व प्रगत बनण्याचा आर्य(महान)मार्ग विपश्यनेद्वारेच प्राप्त होतो/आचरिता येतो (चौथे आर्य सत्य: दुःख मुक्तीचा मार्ग).

त्यामुळे जीवनाच्या प्रवासात आपण मन व शरीर दोन्ही जरी महत्वाचे असले तरी मन हे प्रमुख आहे, प्रधान आहे, अध्यक्ष आहे. त्यामेळे मोक्ष /निर्वाण (कायम निर्दोष जीवन) साठी शरीराला उपवास, व्रत, राख लावणे, अर्धनग्न किंवा नागडे फिरणे, अंगारे-धुपारे, कर्म-कांडांत  अडकवून (शरीराला अतिमहत्व देवून) समस्या सुटलेल्या नाहीत. कारण महत्वाचा व गंभीर परीणाम मनाचा शरीरावर होतो। शरीराच्या रोगांचा मनावर तितकासा परिणाम होत नाही. 

-संबोधन धम्मपथी 

























Saturday, 13 June 2015

धम्मिको बौद्धिक स्पर्धा : 2015

साप्ताहिक निळा प्रहार द्वारे "धम्मिको बौद्धिक स्पर्धा" आयोजित करण्यात येत आहे। विषय: "धर्म प्रसार व धर्म प्रचार यात फरक कोणता? आणि प्रभाव कोणाचा जास्त असतो धर्म प्रसाराचा कि धर्म प्रचाराचा? उदाहरणे देवुन स्पष्ट करणे आवश्यक आहे।"
पहिल्या प्रथम जाणुन घ्या धर्म म्हणजे काय? बौद्ध, हिंदु, मुस्लिम  व ईतर हे तर संप्रदाय आहेत। धर्म ह्या शब्दाला प्राचीन भारतात स्वभाव, निसर्ग व गुणधर्म म्हणायचे। धर्माचे तीनच प्रमुख अंग आहेत: शील (सदाचारी व नैतिक जीवन), समाधि ( कुशल मनाची एकाग्रता) व प्रज्ञा (शरीर व मनाच्या सवयींचे प्रत्यक्ष ज्ञान ज्याच्या अभ्यासाने प्रत्येक मनुष्याला मोक्ष/निर्वाण मिळु शकते। जसे सिद्धार्थाला मिळाला ।) ही बौद्धिक स्पर्धा ह्याच शुद्ध धर्माच्या अर्थावर अवलंबुन आहे हे कृपया ध्यानात ठेवावे।
आता शुद्ध धर्माची गरज नक्की काय व कोणाला हे ही तथागतांनी सांगितले आहे। ते म्हणतात: गृहस्था तु अमुक देव-देवतेला पुजणारा असलास, ईश्वर एक किंवा अनेक आहेत असे मानणारा असलास, आत्मा व परमात्मा एकच किंवा अनेक मानणारा असलास, ईश्वर मानणारा किंवा न मानणारा असलास तरी तुझ्या कळत-नकळत तुझ्याच मनात ईर्षा, भीती, वासना, बैचेनी, क्रोध, कुशंका, अयोग्य अविश्वास, असंयम, असहनशीलता व व्याकुळता हे अकुशल मनोविकार जागतात ना? आणि हे च विकार मग मनातुनच वाणी न शरीरावर बाहेर पडतात। ईच्छा असुनही अकुशल कर्मांवर तुमचे नियंत्रण राहत नाही।  आम्ही त्याच चंचल मनाचे डॉक्टर आहोत। तुला ज्याला पुजायचे आहे त्याचे तु पुजा-अर्चा चालु ठेव। कायम सुख किंवा दुखमुक्ती हवी असल्यास मात्र आम्ही तुला मनाला शांत व निर्दोष बनण्यास शिकवु। पण ह्या मार्गावर तुलाच चालायचे आहे। जसे व्यायाम शाळेत गेल्यावर शिक्षक तर आपल्याला फक्त शिकवतात सुर्यनमस्कार तर आपल्यालाच मारावे लागतात। धर्माचीही गोष्ट तशीच आहे।
याचा दुसरा अर्थ असा कि बुद्धाची शिकवण/धम्म हा काही फक्त बौद्धांपुरता मर्यादीत नसुन भुत,वर्तमान व भविष्याकाळातील सर्व मानवासाठी आहे। त्यामुळ बौद्धांसह इतर संप्रदायातील लोकापर्यंतही धर्म पोचायला हवा। तर मग ईतर संप्रदायांची कर्मकांडे व संस्कृतीला नावे ठेवुन कल्याणकारी बुद्धवाणीचा बौद्धजन स्वताच अपमान करतात व तिला सीमा लावतात। ह्या  बौद्धिक स्पर्धेत मात्र असे चालणार नाही। बुद्धविचार यशस्वी रीत्या कसा पोहोचेल ते पाहायचे आहे: धर्म प्रसार व धर्म प्रचाराच्या माध्यमातुन।
काही जण असेही सुचवतील कि दर रविवारी विहारात जावे, पौर्णिमा व इतर सण साजरे करावेत। पण प्रश्न  असा आहे कि हा  धर्म प्रसार आहे का धर्म प्रचारआहे। दोन्हीही असणे शक्य नाही कारण फक्त तसे केल्याने का मन पुर्णता शांत, सजग व निर्मळ होत नाही असा माझ्यासह अनेकांचा अनुभव आहे। त्यामुळे अशी उदाहरणे देताना धर्म प्रसार व धर्म प्रचाराच्या दृष्टीनेच परिपुर्ण विचार करावा।
समजा कुणी विचारले कि शिकवणे म्हणजे काय तर असे सांगावे कि: एखादी गोष्ट/ज्ञान/माहिती आपण लेखाने/वाणीने/स्वत: आचरणात आणुन/प्रसंगानुरुप(जसे बुद्धांनी किसा गौतमीला सांगितले)  समोरच्या माणसाचे वय/स्थिती/बुद्धिमत्ता पाहुन सोप्या पद्धतीत समजावुन सांगणे याला शिकवणे म्हणतात। अशा पद्धतीने धर्म प्रसार व धर्म प्रचाराची दोन्हींची व्याख्या द्यावी। तसेच बुद्धाच्या शिकवणीचा किस्सा किंवा  स्वताच्या जीवनातील एखादा शिकवणीचा किस्सा उदाहरण स्वरुपात देवुन शिकवण ह्या शब्दाचा अर्थ समजावता येईल। त्याच प्रमाणे धर्म प्रसार व धर्म प्रचारा यांचा अर्थ ह्या धम्मिको बौद्धिक स्पर्धेत तुमचे उत्तर साधारण २०० शब्दांत द्यावे ही विनंती।
आपल्या धर्म प्रसार व धर्म प्रचारात आपण कमी पडतो आहोत। जर धर्म प्रसार व धर्म प्रचाराचा बुद्ध व बाबासाहेबांना काय अर्थ सांगायचा होता हे परिपुर्ण रीत्या समजणे व समाजात धर्म प्रसार व धर्म प्रचाराबाबत तर्कसंगत व युक्तिसंगत अशी उपयुक्त माहिती देणे हे ह्या स्पर्धेचे मंगल उद्देश्य आहे। त्यामुळे सर्वांनी ही स्पर्धा यशस्वी करण्यासाठी सर्वतोपरी यथायोग्य सहकार्य करावे, विचार मांडावेत व ईतरांनाही प्रोत्साहित करावे ही नम्र विनंती।

- संबोधन धम्मपथी

आग से आग कैसे बुझेगी भाई, बैर से बैरागी कैसे मिटेगा भाई,
सीधी साधी बात क्यो तेरे समझती में ना आयी।।




जेव्हा एखाद्या गरीब/परावलंबी/लाचार समाजाच्या मुख्य वर्तमान पत्र त्या समाजापेक्षा मोठ्या/बलवान/श्रीमंत समाजाच्या श्रद्धा स्थळांना/देवतांची/कर्मकांडांची नेहमीच बेआबृ/ अपमान करतो त्यामुळे त्या गरीब समाजातील व्याकुळ तरूणांमध्ये व बलवान समाजातील व्याकुळ तरूणांमध्ये वादावादी होऊन गोष्ट अत्याचार व हत्येपर्यंत जाते ।

हया प्रकारच्या हत्येमागे आपल्या वृत्त पत्रांचा व वक्त्यांच्या अडाणीपणा आहे। आपले बांधव गरीब / कमजोर / कामगार असतानाही नेहमीच हिंदू देवी- देवतांची निंदा करतात. सुरक्षिततेच्या भीतीने  मग आपलेच बलवान बांधव मुग गिळून बसतात । कमजोर अजुन कमजोर होतो।

मग बलवान समाजाचा पुर्ण राग निघतो गरीब कमजोर मागासवर्गीयां वर।

निष्कर्ष:
 निंदा करू नये। ना बलवानाची ना कमजोराची।

जो आपल्या आई वडिलांचा आदर करतो तो दुसर् या च्या आई वडिलांचा ही मान राखतो। हा सद्गुण आहे।

वैराने वैरच वाढते, आपल्या वृत्तपत्रांना व वक्त्यांना जो पर्यंत नाही समजत तोपर्यंत अत्याचार कमी कसे होणार?

- संबोधन धम्मपथी


जब तक अंतर जगत में, जगत रहे विकार।
भव रोगी व्याकुल रहे, लिये दु:खों का भार।।
- आचार्य सत्य नारायण गोयन्का
💐।। धर्म के दोहे।।💐

स्पष्टीकरण:
साधारण मनुष्य हे समजतो कि जोपर्यंत मी (शरीराने ) कोणाला छळत नाही, जीव हत्या करीत नाही, लबाडी- चोरी व्यभिचार करीत नाही तर मी एक गुणी न संयमी व्यक्ती झालो आहे। आणि त्यातही जेव्हा मी चुगली, खोटेपणा, वाढवुन सांगणे, सत्य अर्धवट किंवा फिरवुन सांगणे हे ही करीत नाही तेव्हा तर मी अधिकच गुणी व संयमी झालो आहे असा भ्रम तयार करतो। तसेच अशा भ्रमात स्वताला ईतरांपेक्षा मोठा समजु लागतो। आणि नकळत सज्जन बनण्याच्या प्रयत्नात अहंकारी बनतो व असे समजतो कि आता अध्यात्मात / धर्मात  शिकण्यासाठी काही शिल्लक नाही। पण हा दिखावा किंवा भ्रम अंर्तमनातील व्याकुळता व बैचेनी वाढवत असतो। जसे डोक्यावर कर्जाचे बोजे वाढते, तसे बैचेनीचे व्याज तर दर अकुशल विचारासोबत वाढत जाते। आणि विचार हे काही ठरवुन किंवा नियमाप्रमाणे येत नाही। विचार तर मनातच येतात आणि स्वता मनाचीच शांती बिघडवतात। मनुष्याने जरी शारीरिक व वाचिक कर्मांवर नियंत्रण मिळवले कि लोक एखाद वेळेस चांगले म्हणतील ही, पण अर्तंमनातील ज्वालामुखीचे व्याज/कर्ज तर वाढतच असते। त्यामळे शांती ही कोसो दुर असते।
असे का होते? जाणुन घ्या असे का होते। आपल्या मनात खोलवर कुठेतरी, आपण पाहिलेली प्रत्येक घटना,कल्पना, रंग, माणुस/स्त्री, देव याबद्दल काही प्रिय-अप्रिय भाव ह चांगल्या-वाईट आठवणींच्या  स्वरुपात घट्ट बसुन असतात। अशी मनातली प्रिय स्त्री/पुरुष समोर आला कि आवडती गोष्ट आल्याप्रमाणे मनाला गुदगुल्या (सुखद संवेदना) होउ लागतात व मनात कामवासनांच्या (मला अमुक पाहिजे किंवा मला मिळाल्यावर अमुक सुख मिळेल अशी आसक्ती) विचारांचे वादळ सुरु होते।जसे 'तो/ती म्हणजे माझे पहिले प्रेम आहे' किंवा 'त्याच्या शिवाय जगणे अशक्य' हे ही एक प्रकारचे वादळच आहे।  तसेच नावडती स्त्री/पुरुष/घटना समोर आल्यावर तीव्र स्वरुपात बैचेनी/क्रोध उफाळुन येतो। हा मनातील आठवणींचा/विचारांचा भार व्यक्ती शरीर व वाणीने जरी संयमी राहिला तरी मनाच्या जगात भोगत राहतो। आपल्या मनाचे नहमीचेे/सततचे विचार ह्या आपल्या सवयी बनतात, मनातील सवयी कालांतराने शरीर व वाचेद्वारे बाह्यजगात प्रकटतात।  आणि हा आपला स्वभाव बनतो। हया बनण्याच्या क्रियेला भव (भवतु सब्ब मंगल मधला 'भव') म्हणतात। आणि ह्या भवातुनच 'मी', 'माझा  स्वभाव', 'माझी जात', 'माझा मुलगा', 'माझा देव' असा 'मी' चा संसार बनतो।
मग आणखीन मोठा भ्रम कि आता काहीमाझा स्वभाव बदलणार नाही। कारण जीत्याची खोड काही मेल्याशिवाय जात नाही हा मोठा गैरसमज आपणच बनविला। जोपर्यंत विपश्यने द्वारे मनातील अकुशल विचारांची जागा स्थायी कुशल विचार घेत नाहीत तोपर्यंत मनुष्य जीवन अनेको गैरसमज, भ्रम व अनियंत्रित अकुशल/अशुद्ध विचारांच्या वादळात वाया जाते। अनेक जन्माप्रमाणे हा जन्म ही वाया जावु नये याची शहाण्या माणसाने खबरदारी घ्यावी।

स्पष्टीकरण: संबोधन धम्मपथी

Saturday, 11 April 2015

संप्रदाय का धर्म, से तालमेल ना खाय।
एक सदा उलझावता, एक सदा सुलझाय॥

- सत्यनारायण गोयंकाजी

अनेक वर्षांच्या कालखंडात आपण अनेक शब्द व अनेक शब्दांचे अर्थ हरवुन बसलो आहोत। आता संप्रदाय व धर्म हे समानार्थी शब्द झाले आहेत. पण त्यात तथागतांनी अत्यंत मोठा फरक सांगितला आहे. संप्रदाय हा काही विशिष्ट लोकांकरिता असतो, त्यांचे कर्मकांडे व परंपरा सांभाळतो. त्या संप्रदायाबाहेरील लोकांवर ह्या संप्रदायाचे बंधन नसते. ऊदा. हिंदु संप्रदाय, बौद्ध संप्रदाय, जैन व इतर संप्रदाय हे एकमेकांवर काही बंधन आणु शकत  नाहीत. प्रत्येकाला मर्यादा आहेत. याचे नियम त्याला व  याला लागु पडत नाहि. अशा प्रकारे संप्रदायाला सीमा असते. 

धर्माचे तसे नसते, धर्माला सीमा नसते. ना काळाची, ना वयाची, ना प्रदेषाची, ना जातीची. धर्म सांगतो, व्यक्ती कोणीही असो मी भेदभाव करीत नाही. मनात वाईट विचार आला कि दंड मिळतोच व मन जितके निर्मळ झाले कि सुख शांती मिळतेच. विचारांचे परिणाम हे कोणीही टाळू शकत नाही.

संप्रदायाचे ठेकेदार आपल्या संप्रदायाच्या मोठेपणा सांगण्यासाठी साधारण  माणसाला खुप मोठ्या कथांमध्ये, स्वर्ग-नरकाच्या  कल्पनांमध्ये, पुनर्जन्माच्या कोड्या मध्ये, कर्म-कांडांमध्ये गोंधळुन ताकतात. व मनुष्याची विवेक बुद्धी नष्ट करतात. 


धर्म तर मनुष्याची सर्वांगीण उन्नती करतो. तो मनुष्याला शारीरिक, मानसिक व वाचिक कर्म करताना आवाहन करतो, कि बाबा सजग राहा, कर्म करताना विचार करा। धर्म सांगतो, कुठलेही कर्म (शारीरिक,मानसिक) करताना मन, शांत, सजग व निर्मळ असणे आवश्यक आहे। तसे नसल्यास तुम्ही मलीन मनाद्वारे दु:खद फळ देणार्या झाडाच्या बीज आपल्या आयुष्यात पेरता, आणि ते कालांतराने दुखद फळ घेवुन येते। आणि निसर्गनियमानुसार प्रत्येक झाडावर अनेक फळे येतात, तसेच सुखाच्या (निरोगी मन) किंवा दुखाच्या(रोगी मन)  झाडावरही त्यानुसारच अनेको फळ येतात। अशा प्रकारे रोगी मनाद्वारे आपण विषारी झाडाची फळे आपणच आपल्या आयुष्यात नकळत पेरत असतो। अशी फळे पिकुन तयार झाल्यावर आपल्या व आपल्या नातेवाईकांना व्याकुळ व दु:खी बनवितात। धर्म सांगतो ही विषारी झाडे मनातील अनियंत्रित भावनांद्वारे (जसे भीती, वासना, क्रोध, पश्चाताप, ईर्षा, निराशा, मत्सर, अहंकार, वैर, लोभ व न्युनगंड ईत्यादी) प्रत्येक नवे झाड म्हणजे अनेक विषारी विचार-विकार आपल्या जीवनात दुखी फळे देत असतात। प्रत्येक विषारी फळ मिळते वेळी आपण आणखीन चिडतो, घाबरतो व हार मानतो। अशा प्रकारे आपण क्रोध व भीती चे नवीन बीज नकळत आपल्या मनाच्या सुपीक जमिनीत पेरतो. अशा प्रकारे विचार-बीज-फळ असे चक्र आयुष्यात नियमीत पणे। म्हणुन चांगले विचार चांगली फळे देतात व वाईट विचार वाईट, धर्माचा न्याय असा सहज, सोपा आणि अचुक असतो.

संप्रदायवाद्यांना समजत नसल्याने ते विविध कर्मकांडे, पुजा-अर्चा, जप-जाप, अमुक-तमुक वार-दिवस, व्रत-उपवास करीत मन शांत करण्याचा प्रयत्न करतात। पण त्याने मिळणारी शांती अस्थायी, तात्पुरती असते। मग पुन्हा बैचेनी घालवुन शांती मिळण्यासाठी झोपेच्या गोळ्या, काम-भोग, विविध व्यसनेही क्स्रुन शांती मिळवण्याचा प्रयत्न चालुच असतो। पण त्याने शेवटी निराशाच पदरी पडते.

कुठल्याही कालखंडात एखादा व्यक्ती जेव्हा बुद्ध होतो, तेव्हा धर्माद्वारे मनाचा सांगोपांग अभ्यास करत, "दुषित मन- दुषित  विचार- दुषित  फळ" यांचे दुष्टचक्र स्वकष्टाने कायम स्वरुपी तोडुन टाकतो। असे तेव्हाच होते, जेव्हा ध्यानाद्वारे मन कायमस्वरुपी नितांत स्वच्छ होते, शुद्ध होते, बुद्ध होते। असा व्यक्ती ईतरांना स्व:ताला कळालेला धर्म (शील-समाधि=प्रज्ञा) शिकवतो, मन सजग व शांतकरण्यासाठी विपश्यना विद्या शिकवतो। त्यामुळे मनातील नव्या विचारांवर नेहमी पहारा व जुन्याविचारांचा निचरा होत जातो। पण हे काम ज्याचे त्याने करायचे असते, कारण ध्यान एकाने केल्यावर दुसर्याचे दुषित विचार नष्ट होत नाहीत।  उदा जो पाणई पितो , त्याचीच तहान भागते, इतरांची नाही। पण एकाने केल्यावर दुसर्याला प्रेरणा नक्की मिळते.

धर्माची शिकवण अशी स्पष्ट्पणे न गोंधळवता सांगितलेली आहे, ती सुआख्यात आहे, सहज आहे। त्यात लपवण्यासारखे, फिरवुन सांगण्यासारखे काहिच नाही। धर्म सांगतो: बाबारे तु कुठल्याही देवी-देवतेला मानणारा किंवा न मानणारा, आत्म्याला मानणारा किंवा न मानणारा, कर्म-कांड करणारा किंवा न करणारा मनात अकुशल विचार येतात व तुला बैचेन व व्याकुळ बनवतात ना? मग आता शील-सदाचारात, समाधि (मन एकाग्र करणे) व प्रज्ञा (मन निर्मळ करणे) ह्या मार्गावर आलास कि व्याकुळता दुर होते कि नाही हे तपासुन तर बघ (एही पस्सिको)? कारण धर्माचा मार्ग हा तपासुन पाहण्याचा आहे.

संप्रदायात तपासुन पाहण्यावर मनाई किंवा कठीण आहे, कारण शांती हि मृत्य पश्चात असते, व  "दुषित मन- दुषित  विचार- दुषित  फळ" यावर कायम स्वरुपी उत्तर नसल्यामुळे न तपासता येणार्या गोष्टी जसे कर्म-कांडे, आत्मा, पुर्नजन्म व ईतर कल्पनांवरती खुप भर  असतो.

म्हणुन गुरुजींनी संप्रदाय व धर्मामध्ये फरक ओळखुन, धर्माचा लाभ घ्यायला संगितले आहे.

मंगल होवो!
-संबोधन धम्मपथी

Wednesday, 11 February 2015

|| धर्म के दोहे ||
गिर-गिर पड-पड फिर ऊठे, चलते रहे बलवान।
कभी न हत ऊत्साह हो, लक्ष पावे महान।।

- सत्य नारायण गोयंकाजी

स्पष्टीकरण:

🌼 जीवनात आपल्याला यश  अपेक्षित असणे स्वाभाविक आहे। त्यासाठी मनुष्य प्रयत्नही करतो। प्रयत्न केल्यावर यशासाठी चमत्कारी शक्ती वर भरवसा ठेवतो। का ठेवतो? कारण प्रयत्न केल्यावर ही येणारे अपयश / निंदा / दुख / अपमान हे अत्यंत क्लेष कारक असतात। अनेकोवेळा चांगले प्रयत्न करुनही यश जसे लपाछपीचा खेळ खेळत असते। अपयशाची कारणे काही समजत नाही। आणि मग दुखाला काही सीमाच नसते। काय करावे अशा वेळेस?

🌿निसर्गातनु बर्याच वेळा सद्धर्म कळतो,  रोपट्याची लागवड केल्यावर फळ यायला वेळ लागतो। पण त्या रोपट्याची खुप काळजी घ्यावी लागते, उन वारा व पावसापासुन । एवढे करत असताना सगळी रोपटी फळ देत नाहीत । टिकु न शकलेली रोपट्याला नक्की काय झाले हे लक्ष पुर्व तपासल्यास व त्यानुसार काळजी घेतल्यावर यश वाढत जाते ।

🌼त्याचप्रमाणे आपल्या प्रयत्नांची रोपटी कुठे खुंटली याची तपासणी करावी, तिथे काही धागेदोरे नक्की सापडतात।

🌼एक तर काम करण्याची पद्धतच चुकिची किंवा पद्धत बरोबर पण श्रम अपुरे किंवा समस्या बरोबर न समजलेली किंवा विचार करण्याची पद्धतच चुकीची; असे काही कारण निश्चित असते। शांत व स्थिर मनच असे कारण शोधु शकते।

🌼अशा प्रकारे अपयशाची कारणे शोधत आपण पुन्हा नव्या जोमाने व उत्साही मनाने कामास लागावे ।

🌼 नकारार्थी व उदास विचारांचा संचय ध्यान करत दुर करावा, त्यांना शरण जावु नये। बहुतेक सर्व मोठ्या यशांमागे अपयशाची प्रयत्नांची व कठीण घटनांची प्रचंड मोठी यादी असते।

🌼पण बाहेरच्या माणसाला ईतरांचे यश दिसते, यशामागील प्रचंड उत्साही, जिद्दी व खंबीर मन दिसत नाही । हे समजुन उमजुन आपणही कर्माबाबत सजग (उदास विचारांना दुर करीत व गुणी विचारांना जवळ करत) व उत्साही राहुन जीवन जगावे व महान लक्ष मिळवावे।

🌼 तसेच इतरांना योग्य प्रेरणा द्यावी । हेही गुणांचे / स्वभावाचे / धर्माचेच  वाटप (धम्मदान)आहे।

भवतु सब्ब मंगलं।
- संबोधन धम्मपथी 🙏

Wednesday, 28 January 2015

धर्म के दोहे

क्षण-क्षण क्षण-क्षण बीतता, जीवन बीता जाय।
इस क्षण का उपयोग करे, बीता क्षण नही आय।।

- सत्य नारायण गोयंकाजी

स्पष्टीकरण:
साधारण मनुष्य स्वतः च्या बर्याच कर्तव्यांना पूर्ण करण्याची टाळा टाळ करतो ।
इतकी टाळा टाळ कि स्वतःच्या मनाची बैचेनी/अस्वस्थता ओळखायचं व दुर करायला  ही त्याच्या कडे वेळ नसतो।

मृत्यू समयी ही व्याकुळता व बैचेनी उफाळून वर येते, पण तेव्हा वेळ गेलेली असते ।

आई-वडिलांची सेवा, बायको-मुलांना यथोचित निस्वार्थ स्नेह-प्रेम, ज्यांना दुखावले त्यांची माफी मागायची, कुलपुरूषाचे(ऊदा: बाबासाहेब) ऋण फेडणे, क्रोध/ वासना / ईर्षा / भीती / आळस पश्चातापातुन मुक्ती अशा अनेक

बैचेनीची उकल / सुटका झालेली नसते । एक- एक करत तास, दिवस, महिने, वर्षे निघून जातात ।

 ह्या जन्मदिवशी मी जास्त मनोविकार/पापकर्मे कमविली कि जास्त मनोविकार/पापकर्मांपासून मुक्त झालो याचा

हिशोब साधारण माणसाला करता येत नाही । कारण आपण अजुन अंतर्मनाच्या स्वच्छते बद्दल अज्ञानी असतो। अंतर्मनात ह्या व अनेक जन्माची बैचेनी साठली आहे। ती फक्त मनुष्य जन्मात विपश्यना मिळाली कि काढता येते ।

ती काढण्यासाठी आचार्य प्रवृत्त करत आहेत, कारण वर्षामागून वर्षे जात आहेत। पण किती वर्षे बाकी आहेत आपल्याला माहित नाहीत 😥 । न जाणे पून्हा कधी मनुष्य जन्म मिळो न मिळो।

म्हणून साधना करीत विकारमुक्त होत जन्म व वेळ सार्थकी लावावा। गेलेला वेळ परत येत नाही ।

भवतु सब्ब मंगलं।

-संबोधन  धम्मपथी

Wednesday, 21 January 2015

�� धर्म के दोहे: ��

धरम हमारा ईश्वर, धरम हमारा नाथ।
सदा सुरक्षित रहे हम, धरम हमारे साथ।।

- सत्य नारायण गोयंकाजी

स्पष्टीकरण:
�� साधारण मनुष्याचे मन आठ लोकधर्मां मुळे सदैव बैचेन/व्याकुळ/अस्वस्थ असते । जशी एखादी नौका वादळी वारा व अंधारामुळे हेलकावे खात असते । अशा वेळेस तिला मजबुत आसरा(जसे बेट/द्वीप) हवा असतो । पण आसपासचे लोकही कमीजास्त प्रमाणात व्याकुळ असतात।

��मग भगवान म्हणतात ईतर ठिकाणी शोधण्यापेक्षा मनुष्याने मनुष्याने सद्धर्माचाच शरण/आसरा घ्यावा । सद्धर्मात(शील+समाधि+प्रज्ञा) स्थिर मन आपले मार्गदर्शक बनेल ।

��अत्त दीप(द्वीप) भव।

��आठ लोकधधर्म : सुख-दुख/ निंदा-स्तुति/मान-अपमान/यश-अपयश

भवतु सब्ब मंगलं।

-संबोधन धम्मपथी

Monday, 19 January 2015

🌸 धर्म के दोहे 🌸

पके कर्म की चित्त पर, जब उदीर्णा होय ।
नये कर्म बांधे नही, स्वतः निर्जरा होय।।

- सत्य नारायण गोयंकाजी

स्पष्टीकरण:
🏮बुद्ध शिकवणी नुसार कर्माचे परिणाम ह्या च जन्मात मिळाल्या शिवाय राहत नाही। पिकलेल्या/तयार कर्माचा परिणाम जेव्हा मन+शरीरावर होतो तेव्हा साधारण रोगाच्या लक्षणा (जसा ताप / सर्दी /खोकला)  सारखा  सहज ओळखण्या एवढा सोपा नसतो। जर ओळखता / समजताच नाही आला तर दुर कसा करणार? साधारण मनुष्य हे समजत नसल्याने बैचेनीत अजुन दुख देणारी कर्मे करीत राहतो, दुःख भोगीत असतो ।

🏮आचार्य म्हणतात  मनाच्या पडद्यावर जेव्हा अशा पिकलेल्या कर्माचा परिणाम  (चित्तात विचार व  शरीरावर  सुक्ष्म संवेदनांच्या) आधाराने होत असतो। ह्या संवेदनांमुळेच वाईट वस्तु प्रिय (जसे परस्त्री-बाटली) वाटते व चांगल्या गोष्टी अप्रिय (जसे कर्तव्य - सद्गूण). हीच आहे प्रतीत्य समुत्पादाची तोडता येणारी कडी।

🏮आणि प्रत्येक संवेदना (सुखद, दुःखद, असुखद-अदुःखद) ही एखाद्या परिणाम तयार झालेल्या कर्माच्या रुपाने बाहेर पडते, यालाच उदीरणा (  अंतर्मनातुन विचार बाह्य मनात डोकावणे ) म्हणतात।

🏮ह्या संवेदनांचा समतेने सामना केल्यावरच दुःखद / सुखद कर्मांचे परिणाम नष्ट करता येतात । शील तर समाधि (म्हणजे कुशल चित्ताची एकाग्रता) वाढवण्यास मदत करते। पण समाधि ने समता वाढत नाही प्रज्ञेने वाढते।

🏮 'समता' म्हणजे ( संवेदनांना महत्व न देणे / संवेदनांना भीक न घालणे)। समता ठेवली कि नवे कर्म संस्कार बनायचे थांबतात।

🏮प्रज्ञाच खरोखर संवेदनांचा जन्माबाबत जागृती व संवेदनांचा दुष्प्रभाव नष्ट (निर्जरा) करु शकते।

🏮ज्या ज्या वेळी मन विचलित होते तेव्हा समाधि उपयोगी असते। पण जेव्हा मन क्रोध / वासना / भयाने ग्रासते तेव्हा संवेदनांच्या उत्पाद-व्ययाकडे (निर्माण - अस्त) बारकाईने लक्ष द्यावे । अशांत मन शांत होत कर्मांचे दुष्परिणाम नष्ट होतील । याला निर्जरा म्हणतात।असे करीत राहिल्यास मागचे सर्व न पिकलेले कर्म संस्कार टप्या टप्याने मनाच्या पडद्यावर येत नष्ट होतात। व्यक्ति निर्मळ होते।

भवतु सब्ब मंगलं।
- संबोधन धम्मपथी 🙏

Friday, 16 January 2015

🌸धर्म के दोहे 🌸
पग पग बढता ही रहे, प्रबल रहे पुरुषार्थ ।
धरम पंथ दोनों सधे, स्वार्थ और परमार्थ।।
- सत्य नारायण गोयंकाजी

स्पष्टीकरण:
सहसा चांगले कर्म करीत राहण्याचा मनुष्याचा प्रयत्न असतो। पण परिस्थिती समोर मनुष्य कच खातो।😫
चांगले वागायची आशावादी सुरुवात करताना, प्रयत्नांना  अमुक एका वेळे नंतर यश येईल अशी अपेक्षा असते। पण यश / सुख काही यायची चिन्ह दिसत नाही ।स्वतःच्या स्वप्नांना, इज्जतीला, सुखांना जपण्याच्या प्रयत्नात चांगली कामे करायचे थांबवुन, वाईट कर्मे करायला सुरुवात करतो।
अशा निराशेच्या वेळी पुर्वी केलेल्या सत्कर्मावर / प्रयत्नांवर पाणी सोडले जाते।
😔का होते असे?
🌞एखादी गृहिणी सकाळ, दुपार व संध्याकाळी घराला झाडु मारुन स्वच्छ करते। तसेच या दरम्यान काहीही  कारणाने घर अस्वच्छ तेव्हाही गरजे नुसार स्वच्छता करते।
एवढी काळजी घेत असताना ही हळुच नकळत प्रत्येक क्षणाला घाण - धुळ घरात येत असते। दारे - खिडक्या नेहमी बंद नाही ठेवु शकत। आणि जरी कधी बंद ठेवली तर आतली (न निघालेली) जुनी घाण व घरातील कामे नवीन घाणेची निर्मिती करतात। त्यामुळे नियमित सफाई गरजेचीच असते।
🌞त्याच प्रमाणे आपल्या शरीर रुपी घराच्या दारे - खिडक्या (नाक , जीभ, त्वचा, कान व डोळे) नेहमी निराशा / भीती / तंद्री / बैचेनी / वासना व पश्चात्तापाची घाण घरात (शरीरात + मनात) घेत असतात । मनुष्य जरी कोमात गेला (सर्व दारे खिडक्या "5 ज्ञानेंद्रिये" बंद) तरी मनातील न काढलेली जुनी घाण (कर्म संस्कार) ही नवीन घाण बनवीत असते।
मग आशा, जिद्द व एकुणच पुरुषार्थ कमी पडतो। सद्धर्म धारण करताना कळते कि अविचार / मानसिक कचरा कसा, कुठे, कधी व किती आला व किती अगोदर तपासुन होता।
🌞धर्म विपश्यनेद्वारे कचरा बाहेर काढायला व नवा कचरा न बनवायला शिकवतो। त्यामुळे आध्यात्मिक (स्वार्थ) व सांसारीक (परमार्थ) प्रगती होते।पण तसे न झाल्यास धर्म (शील + समाधि+ प्रज्ञा) न रुजल्याचे स्पष्ट होते ।
🌞अशा प्रकारे प्रत्येक पावलो-पावली धर्म आशा व पुरुषार्थ वाढवण्यात खुप मदत करतो।

भवतु सब्ब मंगलं।
- संबोधन धम्मपथी 🙏

Thursday, 15 January 2015

धर्म के दोहे

शील समाधी ध्यान कि, बही त्रिवेणी धार।
डुबकी मारे सो तिरे, हो भवसागर पार।।

- कल्याणमित्र सत्य नारायण गोयंकाजी

स्पष्टीकरण:

ऐकदा एका गृहस्थाने शास्त्यांना ( बुद्धांना ) ऐक प्रश्न विचारला:
शील जास्त महत्वाचे कि प्रज्ञा?
पहिले प्रथम कोण महत्वाचे?

🌞तथागत म्हणतात:
शील हे प्रथम प्राथमिक अंग आहे। ते समाधी ला बलवान / निर्मळ बनवते। समाधी ही प्रज्ञेला बलवान / निर्मळ बनवते। प्रज्ञा ही निर्वाणा साठी उपयोगी आहे। जसे तीन पायांचे आसन।💺

गृहस्थ: एखादे उदाहरण देवून स्पष्ट करावे । 🙏

🌞तथागत म्हणतात: जेव्हा एखाद्या चे दोन्ही हात घाणीने खराब झालेले असतात । तेव्हा तो व्यक्ती सुरुवातीला एक हात (शील) साफ करते. नंतर त्या पहिल्या धुतलेल्या हातानेच दुसरा हात (प्रज्ञा) साफ करते ।
आता दोन्ही हात साफ झाल्यावर तो दोन्ही हात एकमेकांवर रगडून खुप व्यवस्थित पणे एक हात दुसर्या हाताचे व दुसरा हात पहिल्या हाताचे कानेकोपरे अगदी स्वच्छ / निर्मळ करतात। हे दोन्ही हात एकमेकांचे पुरक ठरतात।

अगदी याच प्रमाणे हे गृहस्था, सुरुवाताचे माफक  शील प्रज्ञेला स्वच्छ बनवते। समाधि इथेही एकाग्रते च्या स्वरुपात असते।
 प्रज्ञा मिळाली कि शील आणखीन सहज व मनापासून होते। शील आणखीन पुष्ट झाले कि (समाधि, व समाधि मुळे ) प्रज्ञा  आणखीन स्वच्छ, खोल व गंभीर बनत जाते ।

त्यामुळे 🌷शील - समाधि - प्रज्ञा 🌷 हे धर्माचे परिपूर्ण व परिशुद्ध अंगे एकमेकांना बल देतात व मदतच करतात । त्यामुळे त्यांच्या संगमा शिवाय धर्म व निर्वाण शक्य नाही।

तो गृहस्था प्रसन्न झाला। 😊


भवतु सब्ब मंगलं।

- संबोधन धम्मपथी

Wednesday, 14 January 2015

माझे बरेच मित्र व ईतर ही अनेक तरुण-तरुणी मद्यपी बनतात, खास करुन 31 डिसेंबर च्याच रात्री.
आणि जीवनात जेव्हा कधी बैचेनी, व्याकुळता, आनंद व अस्वस्थता मनात थैमान घालते तेव्हा मग दारुचा  विटाळ वाटत नाही। उलट ती सहज मुक्तीदायिनी / विश्रांती दायिनी / आराम दायिनी वाटते। 😜😛
पण बेहोषीतल्या आरामात समस्या तीळभरही सुटत नाही, वेळ / लढण्याची सवय निसटते व ढळणारे आरोग्य परिस्थिती आणखीन कठीण करुन टाकतात ।
याबद्दल सर्वांनी जागरूक राहावे । शील- सदाचार व संयम ढळु देवु नये। आनंदी राहावे। नव्या वर्षात शुद्ध धर्मात ( शील + समाधि + प्रज्ञा )  प्रगती होवो व क्षांती लाभो ही सदिच्छा ।
भवतु सब्ब मंगलं।
- संबोधन धम्मपथी