जयभिम बंधुओ,
खुद्शहजी के लेख एवं विशय दॊनो उचित हि है. आरक्षण लाभार्थी आरक्षण के लाभ उपरांत अपनी अपने समाज के प्रति जिम्मेदारियों को आसानीसे दुर्लक्षित कर देते है. परमपूज्य डॉ. बाबासाहेब का आरक्षण से उद्देश्य था की, लाभार्थी अपने समाज को प्रगति सन्मुख करे, उन्हें प्रगति और अधोगति के कारणों से अवगत कराये. उनको उनके मानवी अधिकारोसे परिचित कराकर उन्हें प्रगतिपथ पर चलने के लिए एवं मानवी अधिकार पाने के लिए निरंतर प्रेरित करते रहे. इससे वे अपने जीवन को भलीभांति प्रगति की और ले जा सकेंगे। तथा छुआछूत मिटाके विकासभिन्मुख समाज का निर्माण कर अपने भारत देश की भी सेवा करेंगे. क्योंकि सर्वअहितकारिणी चार्तुवर्णी व्यवस्था भारत को अनेको प्रकार से विकसाभिमुख होने से अनेको शतकों से रोकती आ रही से. परंतु आरक्षण से लाभान्वित पिछड़ा वर्ग अपने कर्तव्य रहा है. ये एक समस्या है, पर अभी तक हम ने समस्या के जड तक नहीं पोहोंचे है। आरक्षण के लाभार्थी तो बुद्धिमान मनुष्य ही है. हमारी तरह उनका शरीर भी मन के हिसाब से ही चलता है.
तो समस्या तो मानसिक ही होगी।
तुलना के तोर पर देखे कि, किसी व्यक्ती को बाजार से सामान लाना है. और बाजार में दो प्रमुख दुकाने है. एक पर तो भारी भीड़ उमड़ पड़ी है. पर दूसरी तो बिलकुल ही सुनसान है. तो साधारण मनुष्य तो पहिली वालीपे है जायेगा, भले भीड़ में अनेक कष्ट क्यों न उठाने पड़े. ठीक वैसे है, बुद्धिमान परंतु पथभ्रष्ट आरक्षण के लाभार्थी तथा वंचित दोनों की विचारसरणी समान है. भीड़ जहा वहा का सामान ताजा एवं किफायती ही होगा; क्योंकि अनेक लोग लाभ उठा रहे है ना !!. ये तो सामान्य मानवी स्वभाव है, क्योंकि मनुष्य तो सामाजिक प्राणि है, उसे समाज में रहना पसंद है। उस में भी वो उसी समाज का चयन करेगा, जो शक्तिशाली हो और उसको सुरक्षा-सन्मान दे सके.
ठीक वैसे ही, पथभ्रष्ट-कृतघ्न लाभार्थी दलितों की स्थिति है. उन्हें जहा भीड़ दिखती है वहा दौड़ते है. और तो और इस ज़माने में कोन अपने आप को दलित-अछूत कहना या कहलवाना पसंद करेगा. जब की दलित शब्द द्योतक है अपमान, अशुभमुलक, गुलाम लायक, छू-अछूत लायक , उच्च-नीच भेदभाव का स्मरणरूप!!! अगर कोई कहे की में दलित हुँ, निश्चित ही उसी क्षण से ही औरों की दॄष्टि में सन्मान खोने की संभावना अधिक है. इसके साथ दलितों के न्यूनगंड कारण तो उन्हें को फिर से गुलाम बनाना बड़ा सहज होता है. शक्तिशाली समाज में तो जात छुपाने पर सन्मान भी तो मिलता है. कोन साहेब कहेगा की में दलित हु? साहब की तो छोडो, प्यून तक नहीं कहेगा की में दलित हु. क्योंकि की इससे सुरक्षितता एवं सन्मान नहीं मिलेगा. खास कर कि तब, जब की आज आधुनिक वर्ग में भी आरक्षण एवं जातीयवाद के कारण उठाव हो कर दलितों पर अनेको आतंकी अत्याचार हो रहे हो। पथभ्रष्ट दलित लाभार्थीयोंकि सोच जिनसे वो अपनी सही जाती/वर्ग, उनका सही तारणहार, उनकी कर्तव्यवृत्ति छुपाये हुए है उसका कारण यही है, की जाती/तारणहार/कर्तव्यवृत्ति क उजागर करने पर लोग उन्हें निकम्मा, समाज का बोझ, सिर उठाके चलनेवाला गुलाम समझेंगे। उनसे नौकरी-व्यवसाय में समानता-बढ़ोत्री नहीं देंगे, न उन्हें किसी काम का लायक मानेंगे, उसे उस की मनपसंद ऊँचे जात की रुपसुन्दरी कन्या नहीं मिलेगी और अपने बहेना विवाह चिंता भी सतायेगी. और हो सकता है की सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ेगा. तो कैसे इस बहिष्कार एवं अपमानजनक दुर्व्यवहार से बचे? तो सुरक्षितता के कारण जात छिपाते है और अपने सामाजिक कर्तव्यों से मुख मोड़ लेते है .इसीलिए सुरक्षितता व सन्मान पाने के लिए अपने को दलित न कहना एवं दलित प्रगति अभियान से दूर रेहना भले ही कृतघ्नता है, पर इसके बिना उनके लिए कोई विकल्प उपलब्ध ही नहीं है! क्योंकि गावों में दिनदहाड़े और शहरों में कूटनीति से अन्याय और अत्याचार बिखरे हुए दलितों पर हो है.
इसके बचाव एवं मनुष्य-समानता जागृति पर काम धीमी गति से हो रहा है. इसीलिए कृतज्ञ, प्रगतिशुर एवं इतिहास जाननेवाले दलित तो प्रगति और जातपात नष्ट करनेवाली व्यवस्था बनाने के लिए अन्य दलितोंकी (खास कर के पथभ्रष्ट दलित लाभार्थीयों की) मदत एवं जागृति चाहते है। जो पूर्ण रूप से उचित भी है. पर ऊपर बताने वाले कारणों के कारण नहीं हो पा रहा है. क्यों की जैसे ही दलित शब्द आता है, व्यक्ति असुरक्षितता (सामाजिक एवं आर्थिक जैसे नौकरी-व्यवसाय ) व अपमानजन्य बर्ताव से कमजोर बन जाता है. तो पथभ्रष्ट, जाट छुपानेवाले लाभार्थी दलित और प्रगतिशुर-कृतज्ञ दलित दोनों की स्थितियां भिन्न है. पर हमें तो उत्तर खोजना है की क्या करे जिससे दोनों ही बाबासाहब की अपेक्षा को पूरा करके समस्त समाज से ऊचनीच का विष को नष्ट करे.
तो सही उपाय क्या है, यह सोचना चाहिए. पर इस लिए अधिक मेहनत की जरूरत नहीं है. परमपूज्य बाबासाहब ने तो इस परिपूर्ण तथा परिशुद्ध उपाय हमें पहले से ही दे चुके है. हमें दलित शब्द ही हमारे जीवन से निकालना होगा। उदहारण स्वरूप, अंधेरा शब्द ये बताता है, की वह एक अनचाही स्थिति है, जो उजाले के आभाव से ही होती। उजाला प्रगति का स्वरूप है, अंधेरा नही. जब प्रत्येक जगह प्रकाश होगा, अंधेरा हि नही है, तो अंधेरा शब्द ही लोगो की स्मरण से मिट जाएगा.
ठीक वही भावना सवर्ण-अवर्ण(दलित) के बारे में है. जैसे ही ये नकारार्थी/गुलामीदर्शक शब्द प्रगति योजना से दूर होगा, लोगो का अपमान/प्रतारणा नहीं होगी, और सामाजिक सन्मान बढ़ेगा और असुरक्षितता दूर होगी, क्योंकि अब एक समाज प्रगति कर रहा है, दलित समाज नही. क्योंकि 'दलित समाज प्रगति कर रहा है, याने मेरा गुलाम प्रगति कर रहा है' ये भावना ही क्रोध को जन्म नहीं देगी. तो होगा यु की जिन जातीयवादी व्यक्तियोंसे हानि होने वाली थी, उनका अहंकार जगाने वाले कारण को हमने दूर कर दिया है. 'पिछड़ा समाज प्रगति कर रहा है.' तो पिछड़े वर्ग को हानि न होने की संभवतः अधिक होगी की, क्योंकि जिस शब्द से मल्कियत एवं गुलामी का संभव है, उस घृणास्पद एवं अहंकार जगानेवाले 'दलित' शब्द को हमने प्रगतियोजना के शब्दकोश से अपनी और से मिटा दिया है.
क्या होगा इस शब्द मिटाने से? आज की मनोविज्ञान के आधार पर आप जो सोचते हो, वैसे ही आपका बर्ताव, आचरण एवं समाज में प्रतिमा बनती रहती है. 'में एक दलित/अछूत हुँ, और में दलित/अछूतों की लिए काम करता हूँ.' तो इस वाक्य से मेने मान ही लिया है की में समाज की एक कमजोर कड़ी हू। ये कमजोरी अपने आचरण, विचार, आपसी संबध एवं योजनाओं में सहज चली आती है. न्यूनगंड बनता रहता है. और कौन चाहेगा की इस दुनिया मे में कमजोर बनु? कोई नहीं न, तो क्यों न मिटाये इसी अंधकार को? इस गुलामीदर्शक एवं अहंकारकारक शब्द को?
इस स्पष्टीकरण से दलित शब्द का प्रयोग कर के, हम स्वयं ही प्रगति से जुड़े हुए लोगो की प्रतारणा कर रहे है, अपमान कर रहे है. क्या ऐसा हो सकता है, पिछडे वर्ग एकजुट हो पर बिना दलित शब्द का प्रयोग किये? हो सकता है!!
ये हाल तो है अधिकांश लोगो का! समाज में ऐसे भी है, जो ये सोचते है की अगर मेने बाबासाहब के आरक्षण ला लाभ उठाने पर जो हुआ है उसके बदले बाबासाहेब की लाभर्थियोंसे परोपकार की अपेक्षा है, उसे पूरा नहीं करूंगा तो मेरा क्या बिगड़ेगा? कौन पकड़ेगा मुझे या कौन दोष देगा? तो ऐसे लोगो की बीमारी को कोसने से गाली देने से क्या दूर होगी? उन्हें आत्मज्ञान/आत्मपरीक्षण ही करना होगा न? तो उसके लिए प्रेम से अकुशल कुशल कर्मो के परिणामों से अवगत करने की लिए आईना दिखाना होगा। मन का आईना, विपश्यना विद्या सीखकर दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों से अवगत व उत्साही बनाना होगा.
बाबासाहब ने जीवन के अंतिम चरण में, दलित शब्द मिटाने की, मनुष्य को आत्मनिर्भर एवं विज्ञानंप्रेमी बनाने की एवं भारत को एकसंघ बनाने के लिए १४ अक्टूबर १९५६ में प्रगति योेजना की नीव रखी थी. मेरे विचार से इसी से ही सन्मान, स्फूर्ति, आत्मबल, सुरक्षितता, मनोविकार, एकता, विज्ञानप्रेम एवं दलित/अछूत शब्दों से मुक्ति मिलेगी. इसीसे आरक्षण लाभार्थी पुनः अपने प्रगतिशुर बंधुओ का भार ढाने में मदत कर पायेँगे.
इस यशस्वी संकल्पना पर पुर्नविचार हो ये सबको आवाहन है.
भवतु सब्ब मंगलं!
संबोधन धम्मपथी
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