Saturday, 7 June 2025

धम्म चर्चा : असमानता तथा अल्पायु-दीर्घायु का कारण


(मुल लेखक : भिक्षु नारद महाथेरो, कोलंबो श्रीलंका, यह अंग्रेजी किताब यहाँ उपलब्ध है|  ) 

मानवता के बीच मौजूद इस अकल्पनीय, स्पष्ट असमानता से हैरान होकर, सत्य की तलाश में शुभ नामक एक युवा सच्चा साधक बुद्ध के पास गया और उनसे इस बारे में प्रश्न किया।

"हे भगवा, क्या कारण है कि हम मनुष्यों में अल्पायु (अप्पयुका) और दीर्घायु (दीघायुका), रोगी (बव्हाबाधा) और स्वस्थ (अप्पबाधा), कुरूप (दुब्बाणा) और सुन्दर (वण्णावंता), शक्तिहीन (अप्पेसक्का) और शक्तिशाली (महेसक्का), दरिद्र (अप्पभोगा) और धनी (महाभोगा), निम्न कुल (नीचकुलिना) और उच्च कुल (उचकुलिना), अज्ञानी (दुप्पन्ना) और बुद्धिमान (पञ्णावंता) पाते हैं? " १ 



बुद्ध का उत्तर था:

१. "सभी जीवित प्राणियों के कर्म (कर्म) उनके अपने होते हैं, उनकी विरासत, उनका जन्मजात कारण, उनका सगा-संबंधी, उनका आश्रय। यह कर्म ही है जो प्राणियों को निम्न और उच्च अवस्थाओं में विभेदित करता है।" 

फिर उन्होंने कारण और प्रभाव के नियम के अनुसार ऐसे अंतरों के कारणों की व्याख्या की। 


२. यदि कोई व्यक्ति जीवन को नष्ट करता है, शिकारी है, अपने हाथ खून से रंगता है, हत्या और घाव करने में लगा रहता है, और जीवों के प्रति दया नहीं रखता है, तो वह अपनी हत्या के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो अल्पायु होगा। 

यदि कोई व्यक्ति हत्या से बचता है, डंडा और हथियार का त्याग करता है, और सभी जीवों के प्रति दयालु और करुणामय है, तो वह, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो अपनी अ-हत्या के परिणामस्वरूप, दीर्घायु होगा। 

३. यदि कोई व्यक्ति मुक्का, डंडा, तलवार से दूसरों को नुकसान पहुंचाने की आदत रखता है, तो वह अपनी इस बुराई के परिणामस्वरूप मनुष्यों के बीच जन्म लेने पर अनेक रोगों से ग्रस्त होगा

यदि कोई व्यक्ति दूसरों को नुकसान पहुँचाने की आदत में नहीं है, तो वह अपनी हानिरहितता के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करेगा। 


४. यदि कोई व्यक्ति क्रोधी और अशांत है, किसी छोटी सी बात से चिढ़ जाता है, क्रोध, द्वेष और आक्रोश को बाहर निकालता है, तो वह अपनी चिड़चिड़ेपन के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो कुरूप हो जाएगा।

 यदि कोई व्यक्ति क्रोधी और अशांत नहीं है, गाली-गलौज से भी चिढ़ता नहीं है, क्रोध, द्वेष और आक्रोश को बाहर नहीं निकालता है, तो वह अपनी मिलनसारिता के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो सुंदर हो जाएगा। 


५. यदि कोई व्यक्ति ईर्ष्यालु है, दूसरों के लाभों से ईर्ष्या करता है, दूसरों के प्रति सम्मान और आदर का भाव रखता है, अपने हृदय में ईर्ष्या रखता है, तो वह अपनी ईर्ष्या के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो शक्तिहीन हो जाएगा। 

यदि कोई व्यक्ति ईर्ष्या नहीं करता, दूसरों के लाभ से ईर्ष्या नहीं करता, दूसरों के प्रति आदर और सम्मान का भाव नहीं रखता, अपने हृदय में ईर्ष्या नहीं रखता, तो ईर्ष्या के अभाव के कारण वह मनुष्य जाति में जन्म लेने पर शक्तिशाली होगा।


६. यदि कोई व्यक्ति दान के लिए कुछ नहीं देता है, तो वह अपने लालच के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो वह गरीब होगा। यदि कोई व्यक्ति दान देने पर तुला हुआ है, तो वह अपनी उदारता के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो वह अमीर होगा। 


७. यदि कोई व्यक्ति जिद्दी है, अभिमानी है, सम्मान के योग्य लोगों का सम्मान नहीं करता है, तो वह अपने अहंकार और असम्मान के परिणामस्वरूप, जब मनुष्यों के बीच पैदा होगा, तो वह नीच होगा।

यदि कोई व्यक्ति हठी नहीं है, अभिमानी नहीं है, सम्मान के योग्य लोगों का सम्मान करता है, तो वह अपनी विनम्रता और आदर के कारण, जब मनुष्यों में जन्म लेगा, तो उच्च कुल का होगा। 


८. यदि कोई व्यक्ति विद्वान और गुणी लोगों के पास नहीं जाता है और यह नहीं पूछता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है, क्या सही है और क्या गलत है, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, क्या उसके कल्याण के लिए है और क्या उसके विनाश के लिए है, तो वह अपनी गैर-जिज्ञासा भावना के कारण, जब मनुष्यों में जन्म लेगा, तो अज्ञानी होगा।

यदि कोई व्यक्ति विद्वान और गुणी लोगों के पास जाता है और पूर्वोक्त तरीके से पूछताछ करता है, तो वह अपनी जिज्ञासु भावना के कारण, जब मनुष्यों में जन्म लेगा, तो बुद्धिमान होगा।


निश्चित रूप से, हम वंशानुगत विशेषताओं के साथ पैदा होते हैं। साथ ही हमारे पास कुछ जन्मजात क्षमताएँ होती हैं, जिनका विज्ञान पर्याप्त रूप से हिसाब नहीं लगा सकता। हम अपने माता-पिता के ऋणी हैं, जो इस तथाकथित प्राणी के नाभिक का निर्माण करने वाले स्थूल शुक्राणु और अंडाणु के लिए हैं। वे तब तक निष्क्रिय रहते हैं, जब तक कि भ्रूण के उत्पादन के लिए आवश्यक कर्माधारित ऊर्जा द्वारा इस संभावित जीवाणु-संबंधी यौगिक को सक्रिय नहीं किया जाता। इसलिए कर्म इस प्राणी का अपरिहार्य संकल्पनात्मक कारण है। 

पिछले जन्मों के दौरान विरासत में मिली संचित कर्म प्रवृत्तियाँ (संखार-संस्कार), कभी-कभी शारीरिक और मानसिक विशेषताओं के निर्माण में वंशानुगत माता-पिता की कोशिकाओं और जीनों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  (उदाहरण : जैसे शेक्सपियर के माता पिता दोनों अशिक्षित थे | )

संदर्भ :

१. मानव की सत्ता अपने आप के (पुराने और नए) कर्म  है ,मनुष्य अपने (पुराने और नए) कर्म का वारिस है,वह अपने (पुराने और नए) कर्म की ही उपज है , कर्म मनुष्य सबसे योग्य बंधु है ,अपने कर्म के अनुसार ही मनुष्य सोचता है, कर्म के अनुसारही मानव सत्ता का विभाजन हीन या उच्च  कुलीन इत्यादी भिन्न परिस्थितियों में होता है ।

(कुल्लाकम्माविभंग सुत्त [मज्झिम  निकाय 135]) ऐतिहासिक सम्मानित राजा मिलिंद के समान प्रश्न पर नागसेन का उत्तर | वॉरेन, Buddhism in Translation, p. 214. , पृष्ठ भी देखें। 214

२. लक्खण सुत्त (दीघ निकाय - 30)


धन्यवाद !

संबोधन धम्मपथी

(भाषानुवादक)

Thursday, 29 May 2025

धम्मदृष्टी कार्यशाळेची रुपरेषा

 धम्मदृष्टी कार्यशाळेची  रुपरेषा : ०८ जुन २०२५ 

वेळ :सकाळी  ९ ते दुपारी ३ । स्थळ : श्रावस्ती बुद्धविहार, मुलुंड पश्चिम 

१. ९:०० - ९:१५ : रेजिस्ट्रेशन 

२. ९:१५ - ९:३० : आनापान  ध्यान शिबिर 

३. १०:०० - ११:०० : धम्माची वैशिष्ट्ये आणि जीवनाचा उद्देश्य 

४. ११:० - ११:३० : वरील विषया वर धम्म चर्चा  

५. ११:३० - १२:३० : नशीब, देव की कर्म सिद्धांत 

६ . १२:३० : - १:०० : वरील विषया वर धम्म चर्चा 

७ . १:० : - १:४५ : जेवणाची वेळ 

८. १:४५  - २:३० : आवश्यकता पडल्यास धम्म चर्चा 

९. २:३०  - ३:०० : कार्यक्रमाची सांगता


नोंद:

  1. मोबाईल सायलेंट वर ठेवावा लागेल 
  2. फोन वर बोलायचे असल्यास बाहेर जावे लागेल. 
  3. नोंदणी फी १०० रुपये, विहाराला दान दिले जाईल. 
  4. फक्त १५ सदस्यांना प्रवेश आहे. 

Saturday, 3 May 2025

अभिप्राय: बौद्ध विहारों का तिसरा राष्ट्रीय अधिवेशन (औरंगाबाद)

 अभिप्राय :   बौद्ध  विहारों का तिसरा राष्ट्रीय अधिवेशन (औरंगाबाद / छत्रपती संभाजीनगर , २६-२७ एप्रिल २०२५ )


सप्रेम जयभीम !

अपने अच्छे मित्रों के कारण बहुत बार अच्छे कार्यक्रम, अच्छे विचार और महाअनुभवी व्यक्तियों से परिचय होता है | कुछ ऐसा ही हुआ; जो मेरे पुराने मित्र सदानंद जाधव के द्वारा की महाअनुभाव आदरणीय अशोक सरस्वती बौद्ध जी और उनके मंगलमय संकल्प (भारतीय बौद्ध विहारोंका समन्वय) से व्यक्तिगत रूप से परिचय हुआ | 

मैं अशोक जी के मंगलमय संकल्प और उनके सहकारी यों का बहुत आभारी हुं| उनकी इस सुदूरदृष्टि एवं प्रकल्प को मेरी और से बहुत बहुत शुभकामनाएं | इसी अवसर पर मैंने कुछ उचित धनराशी भी सहयोग हेतु दी है|  उनके इस मंगलमय स्वप्न को शीघ्रतम और परिपूर्णता के साथ पूरा करने हेतु, मैं यह अपना कर्तव्य ही समझता हूं और इसीलिए  इस कार्यक्रम का अभिप्राय लिखने बैठा हुँ | आशा है कि इससे समाज को सहायता मिलेगी | 

१. पांच प्रसन्नकारी बातें जो मुझे अच्छी लगी:
१. अशोक जी की भूमिका (बौद्ध विहारोंका समन्वय ओर समस्या निवारण ) उनकी दूर दृष्टि, उनका नियोजन
२. कार्यक्रम के स्थल का चुनाव; जिससे कि कार्यक्रम ठीक से पुरा हो | 
३. उपस्थित श्रोतागणों के पंजीकरण और आय-कार्ड वितरण जिससे लोकसंपर्क एवं समन्वय सधे |  
४. सृजनशील व्यक्तियों से संपर्क: जिन्होंने मोबाइल एप्लीकेशन और वेबसाइट के निर्माण किया |  
५. स्वयंसेवकों का सेवाभाव  

२. पांच अप्रसन्नकारी बातें जो मुझे अच्छी नहीं लगी:
१. लगभग ८०-९० % प्रवक्ता और सत्र अध्यक्षों ने ऐसी कोई बातें नहीं कही  जिसे अशोक जी के बुद्धा विहार समन्वय भुमिका राष्ट्रीय स्तर पर कार्यान्वित या फिर किसी प्राथमिक समस्या क निवारण हो | उसको कार्यांवित करने के लिए श्रोताओं को विशेष रुप से सक्षम या क्रियाशील बना सके | उनका धैर्य, साहस, सूझ--बुझ  और सेवाभाव बढ़े। 
२. इस अधिवेशन के दोनों ही दिन, में हर दिन ९० मिनट की परित्राण पाठ पाली में हो रहा था| जो भाषा ९९% प्रतिशत लोगों को समझ में नहीं आती, तो अनुमान लगाइए कितना सारा समय व्यर्थ गया। श्रोताओं के उत्साह और आशा को जो क्षति पहुंची वो भी अलग बात है | 
३. मान्यवरों की स्वागतप्रथा  के कार्यक्रम में बहुत सारा समय निकल गया, पर श्रोताओं का क्या लाभ हुआ नहीं समझ पाया |  अशोक जी ने मना करने के बावजूद भी सुत्रसंचालक ने  न मानकर औपचारिकता पुरी की थी  | 
४. बौद्ध भिक्षुओं ने भी में उचित मार्गदर्शन नहीं किया जिससे विहारों के समन्वय की उद्देश्यपुर्ती हो | प्रमुख बौद्ध भिक्षु कहा ने भिक्षु-उपासकोंको के बारे में कहा कि अपने ही होंठ और अपनेही दांत है | परंतु सारा समय उपासक की कमियां/गलतियां बताने पर ही था| भिक्षुओंके के व्यवहार/आचरण के बारे में कुछ भी नहीं कहा! तो दांतों के लिए अलग व्यवहार हुआ और होटों के लिया अलग व्यवहार साबित हुआ |  उन्होंने युवाओं को ताने भी मारे  (भगवान बुद्ध ने कभी ताने मारे थे, ऐसा अब तक त्रिपिटक में नहीं पढ़ा है)  |  दूसरे भंते जी ने हेतुपुर्वक विनोद का वातावरण बनाया, पर उनका ध्यान उपासकों के जेब पे ही था | उनको अपना प्रकल्प गर्भ मंगल विधी उद्देश्य की विशेष मंजिल इमारत की ज्यादा जरुरत लगी, न की विहारोंके समन्वय की ! उनको बोलने की लिए १० मिनिट का समय दिया गया था, और उन्होंने  अपने उद्देश्य के लिए ४०-५० मिनिट का समय ले लिया | यह धम्म संगत और प्रसंगोचित नहीं लगा, न ही शील का पालन हुआ | न ही ये बातें विहारों के समन्वय बे बारे में कुछ मार्गदर्शन कराती है |   भिक्षुओंको तथागत ने तो अनात्म ( भिक्षु की किसी पर भी मलकियत/मैं मेरे ही भावना नहीं हों) भाव, अनित्य और दुःख के साथ सिखाया है | 





३. कुछ महत्वपुर्ण अनुत्तरीत प्रश्न :

१. किसी भी वक्ता का चुनाव करने से पहले क्या आयोजको ने :
    १.अ : क्या उनके लिखित भाषण का प्रथम मूल्यांकन बहुश्रुतोंद्वारा किया था, जिससे उनकी नियोजित विषय पर अनुसंधान (रिसर्च) और उपायों का आकलन हो ?
    १.ब:  क्या उनके अन्य लेखों और सेवाभाव को परखा था (क्योंकि ताने मारनेवाला सेवाभावी कैसे हो सकता है?) ?
    १.क : क्या वक्ता के मानवी गुणों का आकलन जैसे की  लोकसंपर्क, विनम्रता, भाषा प्रभुत्व, नवीनतम प्रणाली/तकनीक (PPT, RCA) , श्रोताओं के मनोवैज्ञानिक स्थिति, ध्यान आकर्षित करने की कला) को महत्त्व दिया गया था? 
    १. ड : क्या अनेक वक्ताओँ में से उनका मुल्यांकन, समग्र दृष्टिकोण  आधार मान कर ही चयन (filtering) हुआ था?

    १.इ : क्या वक्ताओं के दिशाहीन मार्गदर्शन का कारण, वक्ताओंका चयन करते समय उनके लेख -आचार-विचारों से भी अधिक महत्व उनके उपाधियों को  (डॉक्टर/प्राध्यापक/थेरो/महाथेरो/अध्यक्ष/सेक्रेटरी/संस्थापक)  दिया गया था ?
२.  क्या कभी बौध्दों के कार्यक्रम में स्त्रियां और नवयुवक नहीं आएंगे ? क्या हमेशा ९९  % बूढ़े लोग ही आएंगे? क्या बौद्ध विहार समन्वय समिती इसकी जाँच/कारणमीमांसा का बीडा उठाएगी?
३. क्या श्रोताओं को एक दूसरों के साथ जुड़ने के लिए तथा नियोजित विषय पर पर उनके मतों को समझने के लिए क्या वर्कशॉप/चर्चासत्र जैसे कार्यक्रम पर विमर्श हुआ था? जिससे श्रोताओं को अपने विचार रखने का कोई अवसर मिले | एक दूजे के साथ संपर्क का कि राह सुनियोजित हो?
४. क्या कारण हो सकता है कि, बौध्दों के कार्यक्रम में युवा वर्ग बिल्कुल आना पसंद नहीं करते?  "बाबा तेरा सपना अधूरा, गुटका खाकर करेंगे पूरा" जैसे मान्यवर भिक्षु के तानोंसे निराश/संतप्त हो जाते हैं ?और वह ऐसे कार्यक्रम में आना छोड़ देते हैं? ऐसे दुर्व्यवहार की जिम्मेदारी अपनेही 'दांत लेंगे या अपनेही होंठ' ? 
५. क्या उपस्थित मान्यवरो के स्वागतप्रथा के औपचारिकता के बिना क्या वें मार्गदर्शन नहीं कर सकते? छोड़ कर चले जाते है ?
६. क्या भिक्षु के 11:00 बजे भोजन देना और उपासक को 2:00 बजे तक भूखा रखना; क्या यह न्यायसंगत-मानवतासंगत-धम्मसंगत है ? या अनुशासनहीनता या फिर असमानता का द्योतक है ?
७. अधिवेशन में चीवरदान के समय  भिक्षुओं ने को घुटनोंपर क्यों बिठाया गया था  ? (पुर्वाश्रमीके राजकुमार रहा चुके) तथागत ने ऐसा दुर्व्यवहार वेश्या आम्रपाली, पिता के खुनी अजातशत्रु  और आतंकी डाकु अंगुलीमाल के साथ भी नहीं   किया नहीं किया था | तथागत ने कभी ऐसा दुर्व्यवहार किसी अन्य के साथ किया, और न ही अपने शिष्योंको सिखाया | अब तक तिपिटक का अध्ययन यही सूचित करता है | युगपुरुष बोधिसत्व बाबासाहब ने दान स्वीकार करते समय स्वयं झुके थे  (सन्दर्भ )
तो क्या वे उपस्थित भिक्षु बुद्ध और बोधिसत्व से ऊपर थे ? या फिर अधिवेशन में दानकर्ता अजातशत्रु/अंगुलिमाल/आम्रपाली से भी अधिक दुर्बोध/अभागे थे ? इसका उत्तर  भिक्षुओंको  त्रिपिटक के आधार पर ही देना होगा ! आदरभाव अनुभव पर आधारित होना चाहिए |  हेतुपुर्वक तुच्छ समझना या हीन दिखाना  गहरे अहंभाव का द्योतक लगता है | बुद्धवाणी के अनुसार सन्मान पुर्वक आचरण अपेक्षित है, तभी तो २६०० साल पहले बुद्धवाणी से समता प्रस्थापित हुयी थी  | जरा सोचिये क्या ये अस्वस्थ रूढ़िवादिता धम्मसंगत है ?

८. ९० मिनट की पाली गाथा के बजाय अशोक बौद्धजी द्वारा ली गयी  ५-१० मिनिट की  हिंदी गाथा प्रभावशाली क्यों लगी ?






४. इस अधिवेशन को विविध दृष्टिकोन से मूल्यांकन करके रेटिंग :
१. क्या आपको कार्यक्रम की भूमिका सही लगी ? ० में से १०  गुण 
२. क्या आपको कार्यक्रम के उद्देश्य पूर्ति के लिए समस्याओं और उनके समाधान के ऊपर उचित मार्गदर्शन मिला? १० में से ३ गुण 
३. क्या आपको धम्म-विद्वान और व्यवस्थापन (Management) - विद्वानों से संपर्क हुआ?  क्या उनसे कुछ मार्गदर्शन मिला? १० में से २ गुण 
४. क्या आपको बुद्ध विहारों मे स्त्रियों और युवकों को आकर्षित करने के उपाय मिले१० में से १ गुण 
५. क्या आपको धम्म के प्रचार और प्रसार के लिए नया ऊर्जा, नव चेतना और संयम प्राप्त करने के लिए उचित कल्पकता मिली?  १० में से २ गुण 
६. क्या एक क्या एक श्रोता के तौर पर आपका अभिप्राय या आपके विचारों को किसने जांचना चाहा आपकी प्रतिक्रिया किसने मांगी (जैसे की Google Forms) ? १० में से ० गुण 
७. क्या भोजन का समय और दर्जा सही था?  १० में से ६   गुण 
८. क्या आपके साथ आए हुए साथी या मित्र-परिचित प्रसन्न हुए? १० में से २ गुण 
९. विविध आयु / विविध शैक्षणिक स्तर / लिंग / विविध आर्थिक स्तर/ विविध बौद्धिक स्तर के लोगों से किस तरह से बातें रखी जाए, क्या आपको  किसी मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक से कोई मार्गदर्शन मिला? १० में से १ गुण 



५.  मेरे सुझाव : 

  • तथागत ने लोकभाषा में गाथाएं कही थी | तो आज की भाषा में बुद्ध वंदना लेनी चाहिए जिसे लोक समझकर जीवन में कार्यान्वित कर सके | जिसका समय ५-१० मिनिट का हो | 
  • राष्ट्रिय स्तर के अधिवेशन के वक्ताओं का चयन शिफारस से न होकर उनकी प्रतिभा, समयसुचकता, भाषणों के मुद्दों के विश्लेषण की कुशलता, नवीनतम अनुसंधान और ज्ञान के मूल्यांकन पर हो | और वक्तों की ऐसी विशेष परख और विशेषण के लिए  वर्षभर के मूल्यांकन की मेहनत हो | 
  • अनुशासनहीन मान्यवर, भिक्षु, संचालक, निवेदक, अध्यक्ष को भी  को बेल बजाकर निलंबित करने का अधिकार अशोक जी/ या अधिवेषण के अध्यक्ष को अवश्य हो | 
  • युवा वर्ग को सम्मिलित करने के लिए, वर्षभर विविध संस्थाओं के युवा वर्ग से जुड़ने का प्रयास हो |  युवा वर्ग के विचारप्रणाली की समर्थता/परिपक्वता, उनकी अपेक्षा,  उनकी समस्या और उनकी तकनीक का अध्ययन होने के बाद ही स्थानिक या राष्ट्रीय अधिवेशन की स्वरुप निश्चित हो | 
  • भिक्षु-उपासक के बारे में पक्षपाती / पैसा मांगने वाले  / ताने मारकर बोलने वाले /असेवाभावी  वाले भिक्षु/उपासकों (शील की  गाथा कहकर उपासकों  की जेब पर नजर रखने वाले भिक्षुओं ) का चयन न हो | नहीं तो यह बुद्ध के विनय के प्रतिकुल नीति होगी | 
  • श्रोताओं के मनोविज्ञान को जानकर उनके सक्रिय सहभाग के लिए वर्कशॉप / चर्चासत्र और प्रश्न उत्तर के सत्र का आयोजन हो

धन्यवाद !!

यदि मेरे कुछ विचार आपके सामने रखते हुए अगर मैं आपका कहीं मन दुखाया हो तो मैं आपसे क्षमा प्रार्थी  हूं | कार्यक्रम के दौरान, इस विषय में मैंने कुछ अन्य श्रोतओंसे भी बातचीत की  थी| उन सभी ने मेरे ऊपर के मतों को ठुकरा नहीं सके | उन में से कोई वकील, प्रोफेसर, डॉक्टर, ग्रॅज्युएट  और १२ पास लोग थे | 

हो सकता है, की  मेरे यह  सुझाव मनुष्यबल या फिर द्रव्यबल(पैसा) कारण संभव न हो| पर यह सुधारित नियोजन तो  बुद्धिबल का द्योतक है, ये मेरा दॄढ विश्वास है| मेरा उद्देश्य तो यही है कि अधिकाधिक नवयुवक और स्त्रियों का यहां पर सम्मेलन में सहभागी हों | जिससे आर्थिक और पारमार्थिक रूप से समाज का विकास हो | माननीय अशोकजी की भूमिका और देश के सारे बुद्ध विहार का समन्वय शीघ्र और परिपुर्ण तरह से हो | इसलिए अपने मनोगत और अपना अभिप्राय आपसे स्पष्ट रूपसे समीक्षा सहित साझा कर रहा हूं|  जय भीम, नमो बुद्धाय | 


आपका ऋणी ,
सम्बोधन धम्मपथी (९७७३१००८८६)
कॉम्पुटर इंजीनियर, आयटी क्षेत्र में २२ साल का अनुभव,
सर्टिफाइड आयएसटीक्युबी मैनेजर, Certified SCRUM Master,
त्रिपिटक वाचक, धम्मसेवक,
मुंबई, महाराष्ट्र 


Friday, 2 February 2024

तिरोकुंड सुत्त : (चार) भिंतीपलीकडील अदृश्य उपाशी सावल्या

 तिरोकुंड सुत्त  : (चार) भिंतीपलीकडील अदृश्य उपाशी सावल्या 

ह्या लेखात मी तिरोकुंड सुत्त आणि त्यावरील स्पष्टीकरण देत आहे. 

बुद्धाने हितकारी/श्रद्धा  आणि अहितकारी/अंधश्रद्धा  गोष्ट कशी ओळखायला शिकविले ?

हे सुत्त  त्रिपिटकातील खुद्दकनिकायात प्रेतवत्थु (प्रेतवस्तु )  विभागातील आहे. ह्या विभागात भगवंतांनी अकुशल कर्म करुन प्रेतयोनीत गेलेल्या लोकांची व्यथा व दुर्दैवी स्थिती समजावली आहे. अर्थात, यावर अनेकांचा विश्वास बसणे कठीण आहे. तरी पंचतंत्रासारख्या मनोरंजक कथांतुन जसे आपण बोध / सद्गुण  घेतो आणि आपले भले करतो तसे आपण आपले भले साधावे. स्वतः बुद्धांनी कालाम सुत्तात स्पष्टपणे सांगितले आहे कि, "मी सांगतो म्हणुन किंवा ग्रंथांत लिहिले आहे म्हणुन मानु नका. जर सर्व समाजाचे भले होत असेल आणि विद्वानांनी स्वीकारले असेल किंवा तुम्ही स्वतः तपासले असेल तरच ते माना ! नाहीतर एक कथा म्हणुन  एका  आणि सोडून द्या.

आणखीन सांगायचे म्हणजे कॉम्पुटर बनवायचे ज्ञान ५० वर्षांपूर्वी एखाद्याला सांगितले तर अशी वस्तु बनू शकते, यावर कोणी श्रद्धा/विश्वास ठेवला नसता! आज ती वस्तु बघितल्यावरच श्रद्धा/विश्वास बसतो. तरीही वाचकाने कालामसुत्तच लक्षात ठेवावे !!

प्रेतवस्तुची विभागाची ओळख : तुमचे काही  मृत पूर्वज आणि प्रिय मृत नातेवाईक मृत्यूनंतर प्रेतयोनीत जन्मुन खूप दुर्दैवी आयुष्य जगण्याची शक्यता आहे. मृत्यूनंतर प्रेतयोनीत अशीच माणसे जातात ज्यांनी घोर अकुशल कर्म केलेली आहेत. (कर्म सिद्धांतानुसार) तिथे ते स्वतःला घोर शिक्षेच्या संकटांपासून व उपाशी रहाण्यापासून वाचवु शकत नाही. म्हणुन बुद्ध समजावतात, तुम्ही मृत पुर्वज/नातलगांबद्दल (तुमच्यासाठी त्यांनी केलेल्या कामाबद्दल) विनम्र राहुन आणि कृतज्ञता बाळगुन, त्यांची भल्यासाठी आणि तुम्हाला जास्त काळ साथ देईल असे पुण्य/मंगल करण्यासाठी दान देत राहिले पाहिजे.

(तिरोकुंड सुत्त सुरु झाले) 

 तिरोकुंड सुत्त:  त्या भिंतीपलीकडील अदृश्य उपाशी सावल्या

(तिरोकुंड म्हणजे घराबाहेरील)

घराच्या बाहेर किंवा चौकात ते  अदृश्य ( मृत पावलेले पुर्वज/नातेवाईक  ) उभे आहेत! दाराच्या चौकटीत ते उभे आहेत, ते त्यांच्या जुन्या घरी परतण्याच्या प्रयत्नात आहेत. पण स्वतःला आणि कुटुंबाला जेव्हा भरपूर अन्न-पाणी मिळते, तेव्हा कोणीही त्यांना (स्वतःच्या पूर्वजांना) लक्षात ठेवुन धन्यवाद देत नाही. असे  प्रत्येक मनुष्याच्याचे कर्म/स्वभाव (दोष) आहे.

तरी अशा प्रकारे ज्यांना स्वतःच्या मृत पुर्वज/नातेवाईकांबद्दल सहानुभूती वाटते, ते इतरांना वेळेवर योग्य अन्न-पाणी किंवा विविध प्रकारे वेळेवर दान  कृतज्ञतेने देतात. दान देताना असा विचार असतो, कि, "आज आम्हाला आमच्या मृत पुर्वज/नातेवाईकांच्या कष्टामुळे सुख समाधान मिळते आहे. (हे सुंदर छान वस्तूचे दान देताना) आम्ही कृतज्ञतेने  अशी कामना करतो कि, ह्या दानाच्या पुण्याने मृत पुर्वज/नातेवाईक जिथे असोत, तिथे त्यांनाही  योग्य अन्न-पाणी किंवा विविध प्रकारे मदत मिळो. आमचे मृत पुर्वज/नातेवाईक सुखी होवोत!"


आज संयोगाने जे मृत पुर्वज/नातेवाईक इथे अदृश्यरित्या जमले असतील त्यांना विनंती कि, "आम्ही इतरांना दिलेल्या (छान आणि भरपूर अन्न-पाणी किंवा इतर विविध ) दानाबद्दल  तुम्ही (मृत पुर्वज/नातेवाईक) आम्हाला प्रेमाने-कौतुकाने आशीर्वाद द्यावे !! तुम्ही आम्हाला असा आशीर्वाद द्व्यावा कि , "आम्हाला  (मेलेल्या नातेवाईकांना ) विविध गोष्टी सन्मानपूर्वक दान करणाऱ्या ह्या जिवंत नातेवाईकांना सुख-शांती व दीर्घायुष्य लाभोज्यांच्यामुळे आम्हाला [ही भेट] मिळाली आहे. आमचा (मृत्युनंतरही) सन्मान झाला आहे. अशा प्रकारे दान करणाऱ्याचे नेहमी खुप मंगल होते! तसे तुम्हा सर्वांचेही होवो!"

हे लक्षात घ्यावे कि, जिवंत असताना केलेल्या अकुशल कर्मामुळे मृत्युनंतर प्रेतयोनी मिळते. ह्या प्रेतयोनीत शेती नसते, गाया-गुरे  नसतात, कुठलाही व्यवसाय नसतो, पैशाचेही व्यवहार नसतात! जे काही दान त्यांचे जिवंत नातेवाईक (इतर गोर-गरीब-गरजु लोकांना) देतात, तेच दान मृत पुर्वज/नातेवाईकांना प्रेतयोनीत मिळते. ते नाही मिळाले कि, हे अदृश्य प्रेतप्राणी खुप व्याकुळ-अशांत-बैचेन होतात. 

जसे पावसाळ्यात डोंगरांवर पडलेले पाणी, झिरपत-झिरपत कळावे बनुन  दरीतुन खालच्या गावांना मिळते, त्याच प्रकारे इथे जिवंत माणसांना केलेली मदत त्या प्रेतयोनीतील मृत पुर्वज/नातेवाईकांना मिळते. 

त्याचप्रमाणे पाण्याने तुडुंब भरलेल्या नद्या जेव्हा समुद्राला मिळुन विशाल बनवतात त्याच प्रकारे,  इथे जिवंत माणसांना केलेली मदत त्या प्रेतयोनीतील मृत पुर्वज/नातेवाईकांना मिळते. 

"भूतकाळात ते माझे  मृत पुर्वज/नातेवाईक, सोबती, मित्रांनी मला दिले, माझ्या वतीने काम केले होते." असे मृत पुर्वज/नातेवाईकांनी केलेल्या उपकारांची जाण ठेऊन कृतज्ञ मनाने आदरपुर्वक दान करतात. अशा प्रकारे त्यांच्या पूर्वजांच्या चांगल्या कामाला चांगल्या कामानेच प्रतिसाद देतात. 


जीवंत माणसे कितीही रडली, दुःख किंवा शोक  केला तरी, कुठल्याच प्रकारे मृतांना फायदा होत नाही. 

पण जेव्हा मृत पुर्वज/नातेवाईकांनी केलेल्या उपकारांची जाण ठेऊन,कृतज्ञ मनाने आदरपुर्वक बुद्धाच्या संघाला दान करतात तेव्हा मृतांना तात्काळ फायदा होतो आणि तो दीर्घकाळ त्यांना सोबत असतो. 

(तिरोकुंड सुत्त समाप्त ) 



स्पष्टीकरण तिरोकुड्ड सुताचे  :

खुप स्वाभाविक आहे कि  असे सुत्त वाचुन विज्ञानाची कास न सोडणाऱ्या बुध्दवाणी बद्दल असंतोष किंवा भीती किंवा दोन्ही वाढतील. म्हणुन अशा प्रकारचे सुत्त खुप विद्वान माणसाने फक्त अशा लोकानांच सांगावे ज्यांनी कालामसुत्त चांगले समजले आहे. ज्यांना कथेतील न पटलेल्या गोष्टी बाजूला ठेवून केवळ सद्गुणांवर लक्ष ठेवुन सद्गुण वाढवणाऱ्यांवर भर असतो. विज्ञान एखादी गोष्ट तेव्हाच स्वीकारते, जेव्हा आपण ती सिद्ध करु शकतो. त्यामुळे आपण प्रेतयोनी सिद्ध ना करता आल्याने, ती जरा बाजूला ठेवुन फक्त सद्गुण घेण्याचा प्रयत्न करूया. 

आजच नाही तर असे बुद्ध काळातही अनेकदा झाले आहे कि, तरुण माणसे आपल्या म्हाताऱ्या आई-बापाला वाऱ्यावर सोडुन देतात. त्यांनी आमच्यासाठी काहीच नाही केले असे बोलतात. आपले पुर्वज कठीण परिस्थितीत कसे जगले, कसे लढले आणि आम्हाला चांगल्या गोष्टींचा वारसा जातं करुन ठेवला, हेही विसरुन जातात. 

पण विद्वान माणसाला हे नेहमी माहिती असते, कि एखाद्या उंच फांदीची उंची, त्या फांदीच्या खाली असणाऱ्या अनेक जुन्या फांदीमुळेच आहे. अगदी त्याचप्रमाणे माझे आजचे सुख हे केवळ माझ्याच नव्हे तर, माझ्या अनेक पिढीच्या मेहनतीमुळे आणि जिद्दी मुळेच आहेत. आई-वडील, काका-काकी/मावशी, मामा-मामी  आणि त्या सगळ्यांचे आई-वडील, यांच्या उपकार्याच्या छायेत माझे सुख भोगीत आहेत. जर पती-पत्नी, भाऊ-बहीण जिवंत नसतील तर त्यांच्या प्रेम-चांगुलपणाने माझे जीवन बहरले आहे. हे जिवंत असोत कि मृत असोत, मी त्यांचा खुप खूप ऋणी आहे. हा विनम्रता, खरेपणा आणि कृतज्ञता हे सद्गुण असलेलाच माणूस हे कबुल करील. 

आणखीन लक्ष दिले तर माझे शिक्षक, शेजारी, अन्न पिकवणारे शेतकरी, पोलीस-सैनिक दल, प्रशासकीय अधिकारी, सामाजिक/राजकीय  पुढारी, रिक्षा वाले, ट्रेन-बस बाले, वर्तमानपत्रे-पुस्तक लिहिणारे, मासेमार -मच्छिमार, व्यापारी, डॉक्टर-वार्डबॉय, प्रोफेसर,  न्यायपालिका संघ, अध्यात्मिक संन्यासी, संडास-गटार सफाई कर्मचारी आणि असे असंख्य माणसे हे सर्व कोणत्याही जाती-धर्माचे असु शकतात! ते आज जिवंत असतील किंवा नसतील मी नक्कीच त्यांचा ऋणी आहे आणि राहीन. हा विनम्रता, खरेपणा आणि कृतज्ञता हे सद्गुण असलेलाच माणूस हे कबुल करील.

आता मी हे उपकार कसे फेडु ? हे जिवंत असले तरी अदृश्य आहेत, आणि मृत असले तरी अदृश्य आहेत!! त्यांना माझ्या आनंदात-सुखात कसा सहभागी करू? तर मित्रा ये... हे तिरोकुड्ड सूत्र वाच!!  आणि  नंतर सन्मानपूर्वक, निर्मळ मानाने आणि कृतज्ञतेने उत्तम दान कर! ते इतरांना बुद्धाने सांगितल्या प्रमाणे मिळेल!

आता प्रश्न हा कि बुद्धाच्या संघालाच दान केल्याने ते लवकर आणि जास्त काळ कसे टिकेल ?

लक्षात घ्या सुत्तात संघ हा शब्द आहे, त्यात भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिका चौघे हि येतात !

एखाद्याला दुसऱ्याला पैसे पाठवायचे असल्यास माणूस एकदम विकसित बैंक बघतो जी ऑनलाईन व्यवहार १-२ सेकंदात करते. मोठं व्याज पाहिजे असेल तर अशी मेहनती विकसित बैंक बघतो जी विचार पूर्वक चांगल्या ठिकाणी, चांगल्या मार्गाने खुप मेहनत करुन गुंतवलेले पैसे वाढवुन देते! बरोबर ना ?

भगवंताचा संघ ( भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिका) हे अशीच विकसित बैंक आहे. ते स्वतःला दिवस रात्र चांगल्याकामात (सत्य, न्याय, सन्मार्ग, निरंतर व निस्वार्थ लोकसेवा)  गुंतवतात. विचारपूर्वक चांगल्या ठिकाणी, चांगल्या मार्गाने, खुप मेहनत करुन मन शुद्ध करतात, सदाचारी बनतात, विपश्यना ध्यान करीत मनाचा खूप उज्ज्वल विकास साधतात. ते कोणतीही जात-धर्म ना पाहता निस्वार्थ आणि सेवाभावी वृत्तीने लोककल्याण करीतच  ते विकसित गुणवान मानव होतात.  जसे पैशाचे काम एका सजग, उच्च शिक्षित, प्रामाणिक, मेहनती आणि सद्गुणात रमणाऱ्या माणसालाच मिळते, त्याच प्रमाणे भगवंताचा संघ ( भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक, उपासिका) हे अशीच विकसित बैंक आहे जी सदासर्वदा मेहनती व कल्याणकारीच कामे करते. त्यामुळे संघाच्या ह्या चारही खांबांचा उचित आदर आणि सत्कार व्हावा .  कां हि कल्याणकारी कामे करताना शील, सत्य, अखंड मैत्रीआणि सहनशीलता ह्या पारमिता पूर्ण केल्यानेच तो माणुस संघाचा भाग बनतो, भले मग तो कोणत्याही जाती-धर्माचा असो!! एखादे कर्मकांड केल्याने, विशिष्ट कपडे घातल्याने, विशेष भाषा बोलल्याने किंवा विशेष केस रचना केल्याने नाही!! (संदर्भ : धम्मपद, भिक्षु वर्ग )



नोट : तिरोकुड्ड चा अनुवाद मी खालील इंग्लिश वेबसाईट चा आधार घेऊन केला आहे. ह्या वेबसाईट च्या सौजन्याबद्दल आणि मेहनती बद्दल खुप  खुप धन्यवाद।।

https://www.accesstoinsight.org/tipitaka/kn/pv/pv.1.05.than.html

खूप खूप धन्यवाद !

आशा आहे कि ह्या लेखाने खूप सारे अकुशल विचार किंवा धारणा दूर होतील!


सर्वांचे मंगल होवो!

संबोधन धम्मपथी 

मोबाइल : ९७७३१००८८६ (व्हाटसप )

Monday, 29 January 2024

बुद्धाच्या नावावर अंधभक्ती बुद्ध शिष्यांद्वारे : आत्महत्येमुळे प्रेतयोनी

माझ्या एका सजग मित्र सदाभाऊंनी मला युट्युबवरील एका भन्तेजींचा व्हिडीओ पाठवुन अनेकांच्या शंकाचे निरसन करण्यासाठी मत प्रकट करण्यास सांगितले. तो दुर्दैवी व्हिडीओ पाहून तात्काळ हा लेख लिहायला घेतला आहे !

भन्तेजींनी काय सांगितले : ह्या व्हिडियों कथित महास्थवीर विविधआत्महत्येद्वरे मनुष्याला प्रेतयोनी मिळते. मृत्यूपश्चात तो व्यक्ती तिथे बैचेन होतो, आणि मग त्याच्या जिवंत नातेवाईकांना वेगवेगळ्या प्रकारे छळतो. त्यातुन बाहेर पडण्यासाठी बुद्धांनी उपासक उपसिकांना भिक्षु ला ७ बाय १२ चे निवास स्थान व विविध मागण्या पुरविल्या तर अशा प्रेतांपासुन सुटका होते. त्यामुळे भिक्षुना  दान नियमित करीत जावे. तसेच हीच अधिकृत बुध्दवाणी आहे हे समजावण्यासाठी विविध शब्दप्रयोग (भव-अस्रव/सत्यक्रिया) केला आहे व शेवटी गोएन्काजींची मंगल मैत्री ही  दिली आहे. 

माझे  विचार खालीलप्रमाणे : 

सर्वात अगोदर बुद्धप्रणित सेवाभावी, ध्यानरत, आचारणशील  व विद्वान भिक्षु संघाला (भिक्षु , भिक्षुणी, उपासक, उपासिका) मी त्रिवार नमन करतो! त्यांच्याबद्दल आदर व कृतज्ञता ठेवुन हा लेख लिहीत आहे. 

 पहिला मुद्दा : बाबासाहेबांचे विचार 

पुज्य बाबासाहेब आंबेडकरांनी 'बुद्ध व त्यांचा धम्म" ग्रंथाच्या प्रस्तावनेत त्रिपिटकातील बुद्ध वाणी ओळखण्यासाठी दोन कसोट्या सांगितल्या आहेत. पहिली कसोटी : बुद्धाने अशी कुठलीही गोष्ट सांगितलेली नाही ज्याने मानवाचे कल्याण होत नाही. दुसरी कसोटी: जी गोष्ट बुद्धी संगत किंवा तर्क संगत नाही, ज्याने कार्यकारण भाव दिसत नाही तो गोष्ठ बुद्धाने सांगितलेली नाही !!

भंतेंजींच्या मुद्द्यांत ह्या दोन पैकी एकही कसोटी त पास होत नाही. याचे स्पष्टीकरण पुढे देत आहे. 

दुसरा  मुद्दा : बुद्धांनी सांगितलेले पुनर्जन्माचे विज्ञान 

ह्या दुर्दैवी व्हिडीओतील भंतेंजींनी सांगितल्याप्रमाणे जर खरंच भुतं असती आणि भुतांना जर इतरांना खरंच त्रास द्यायची शक्ती असती, तर त्या आत्महत्या केलेल्या शेतकऱ्यांच्या भुतांनी इतर अन्यायी लोकांना दिवस रात्र सतावले  असते !! त्यामुळे  पापी व अबोध राजकारणी, प्रशासन अधिकारी, भ्रष्ट वकील/पोलीस, किंवा विरोधी पक्ष हे सुधरले नसते का? बरे सतावायचेच झालेच तर आपल्याच नातेवाईकांना का सतावतील ? जर त्यांची बौद्ध भिक्षुंवर विश्वासच नसेल तर, हे भतेंजी बोलतात त्याप्रमाणे भिक्षूंना अन्न -वस्त्र व निवारा दिल्यावर त्यांना समाधान व मुक्ती कशी मिळेल ? 

हा सगळं अवैज्ञानिक व अतार्किक धम्माचा अपप्रचार फक्त आणि फक्त भिक्षूंना दान मिळण्यासाठी आहे , हे सुस्पष्ट आहे. ८४,००० बुद्धाची उपदेश वाचुन विपश्यना लोकांना समजावण्याचे काम काही भिक्षु करू लागले आहेत. ते अशा प्रकारचा धम्माचा अपप्रचार करीत नाहीत, कारण मेहनती व ज्ञानी भिक्षूंची काळजी उपासक आपोआप घेताना दिसतात. 

एखाद्याला दानाचे महत्व सांगण्यासाठी त्रिरत्नचा गैरवापर झालेला दिसतो.

त्रिपिटकातील जेवढे ग्रंथ मी वाचलेलं आहेत, त्यानुसार  आत्महत्येने मनुष्य प्रेतयोनीत‌ जातो हे बुद्धांनी शिकवलेले नाही, ना हे त्रिपिटकात आहे, ना हे विपश्यना आचार्य गोयंकाजींनी सांगितलेले आहे.

मृत्यू नंतरची गती समजण्यासाठी मनुष्याला प्रतिसंधी विज्ञानाची माहिती असावी लागते. प्रतीत्यसमुत्पाद (तृष्णा आधारित जन्ममृत्यूचा कार्यकारण भाव)  समजावताना तिथे विज्ञान हा शब्द आला आहे ते विज्ञान हे प्रतिसंधी विज्ञान आहे. हे प्रतिसंधी विज्ञान पाच स्कंधातील विज्ञानापेक्षा वेगळे आहे.


प्रतिसंधी विज्ञानामुळेच प्रत्येकाला जीवनाच्या अंतिम क्षणी, त्याच्याच  जीवनातील एक सर्वात गंभीर संस्कार उफाळुन वर येतो. संस्कार म्हणजे पाली भाषेतील संखार! ह्या मनुष्य जन्मातील एक विशेष गंभीर संस्कार (सर्वोच्च कुशल किंवा अंकुशल‌ कर्माचा अनुभव/प्रभाव) त्या मृत मनुष्याचा नवीन जन्म (३१ लोकातील जन्म, ज्यातील‌ प्रेत लोक एक आहे.) निश्चित करतो.

फक्त आत्महत्येनेच नाही तर, मृत्यू च्या शेवटच्या क्षणी वेळी त्याची मानसिक बेचैनी किंवा मानसिक शांती त्यांची दुर्गती व सद्गती ठरवते. 

खालील उदाहरणांनी हा पूर्ण आत्महत्या व प्रेतयोनीतील जन्मासंबंधातील संबंध हा अकल्याणकारी भाकडकथा आहे हे स्पष्ट होते:
उदाहरण १: एखाद्याने आत्महत्या केली पण, त्यापूर्वी त्याने खुप मंगल कर्म केली असतील तर त्या कर्माच्याच आधारे त्याला मनुष्य, देवलोकात किंवा ब्रह्मालोकात जन्म मिळतो. जसे कि एखाद्याने गोड व शुद्ध पाण्याने भरलेल्या ट्रक मध्ये एक चिमुटभर मीठ टाकले असता, त्या ट्रकातील पाणी खारे होत नाही. 

उदाहरण २: एखाद्याने आत्महत्या केली पण ती इतरांच्या कल्याणाकरिता किंवा इतरांचा जीव वाचविण्याकरिता तर, अशावेळेस त्या मनुष्याचे मन क्षांती पारमितेने भरलेले असते. त्या व्यक्तीचा अंतिम क्षण परम शांतीने व त्यागभावनेने ओतप्रोत असतो . जसे खाली दाखविलेल्या चित्रात  व्हिएतनाम मधील भिक्षु क्वांग डुक  यांनी ११ जुन १९६३ आत्मदहन केले , तिथल्या राजकीय अमानुषतेने दररोज जीवघेणा त्रास सहन करणाऱ्या बौद्ध भिक्षु व उपासकांचा जीव वाचण्यासाठी! दररोज निदर्शने करुनही अन्याय कमी ना झाल्याने, राष्ट्रीय व आंतरराष्ट्रीय स्तरावर मदत मिळावी म्हणुन सर्वात शेवटचा उपाय हाच होता!!





तिसरा  मुद्दा :  आत्महत्या करणाऱ्याची भिक्षुंवर श्रद्धा नसल्यास काय होईल  

हे भंतेजी म्हणतात कि अशा भुतांना  प्रसन्न करण्यासाठी आम्हा भिक्षूंना विविध दान नियमित करावे. त्याने  पुणण्याने हि असंतोषी भुते खुश होतील. पण मग अशा भुतांची भन्तेजींवर श्रद्धा नसल्यास, भंतेजीना दान दिल्यावर ते कसे खुश होतील ? ते नाराजच होतील ना? बरे अशी भुते भन्तेजींनाच दिसतात आणि ती भुते खुश झाल्यावर भन्तेजींनाच कळते, म्हणजे छापा पण माझाच आणि काटा पण माझाच ! 

चौथा मुद्दा : सत्यक्रियेचा अर्थ 
भगवंतांनी महामंगल सुत्तात ३८ मंगल कर्मे सांगितली आहेत. त्यातील दहाव्या अंतऱ्यात  ओळीत खालीलप्रमाणे आहे :
तपोच ब्रह्मचरीयंचं, अरीय सच्चानं दस्सनं ।
निब्बानं सच्च किरियाचं, येतं मंगल मुत्तम ।।

इथे भगवंतांनी सत्यक्रिया करणे हे एक  मंगल सांगितले आहे !! 

भन्तेजींनी काय सांगितले : दुर्दैवाने ह्या व्हिडियों कथित महास्थवीर विविधआत्महत्येद्वरे मनुष्याला प्रेतयोनी मिळाल्यावर, भिक्षुंना नियमित दान दिल्यावर त्या भटकणाऱ्या भुतांना पुन्हा मनुष्य जीवन मिळते आणि भगवंताचं धम्म हि मिळतो. ह्या स्वार्थाच्या हेतुने केलेल्या दानालाच  कथित महास्थवीर 'सत्यक्रिया' म्हणतात. 

सत्यक्रियेचा खरा अर्थ असा कि मी भिक्षुं / ज्येष्ठ धम्म बंधु कडून पंचशीलाची दीक्षा घेतल्यावर शील-सदाचाराचे , समाधीचे किंवा प्रज्ञेचे पूर्ण पालन केले आहे. ह्या कल्याणकारी सत्याने माझे किंवा इतरांचे अमुक एखादे अडलेले मंगल काम पुर्ण होवो! अशा प्रकारे स्वतःच्या धम्माचा स्वतःच्या किंवा इतरांच्या मंगलकामासाठी खर्च/वापर  करणे!!!
सत्यक्रियेचे पहिले उदाहरण :  जेव्हा खुनी डाकु अंगुलीमाल भिक्षु बनला आणि सध्दर्मात प्रगत झाला त्यावेळेस त्याचे मन नेहमी करुणा व सेवाभावाने पुर्ण भरुन असायचे । एकदा त्याला रस्त्यात एक गर्भिणी अवस्थेत वाईट व दुर्दैवी अवस्थेत दिसली. त्याला काय करावे ते ना कळल्याने त्याने  बुद्धाकडे जाऊन मदत मागितली. बुद्ध म्हणाले, "तिच्या समोर जाऊन असे बोल,  'मी जन्मल्यापासुन एकाही प्राण्याची हत्या केलेली नाही!! ह्या सत्याने तुझे कल्याण होवो!" बिचारा भिक्षु अंगुलीमाल  घाबरला कारण त्याने ९९९ लोकांची स्वतःनेच हत्या केली होती. मग तथागताने सांगितले कि, 'सध्दर्मात आल्यापासुन तुझा नवीन जन्म झाला आहे. त्यात तू कोणाचीही हत्या केलेली नाही. म्हणुन  जा व मी सांगितले आहे तसे त्या गर्भिणीला सांग!!' भिक्षु अंगुलीमाल  गेला व त्याने तसे केले ! तो त्या अनोळखी गर्भिणीसमोर सत्य बोलला, तिच्या वेदना जादू केल्याप्रमाणे  तात्काळ थांबल्या!! तिची प्रसुती सुखरूप झाली!! ती व तिचे बाळ निरोगी होते! इतरांच्या कल्याणासाठी सत्य सांगून मंगल क्रिया केली! याला म्हणतात "सत्यक्रिया"!! अंगुलीमाल सुत्ताला गर्भरक्षण सुत्त  सुद्धा म्हणतात. (संदर्भ : अंगुलीमाल सुत्त, मज्झिम निकाय ८६ )

सत्यक्रियेचे दुसरे उदाहरण :  जेव्हा विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गोएन्काजींनी भारत सरकार कडे परदेशात विपश्यना शिकविण्यासाठी पारपत्र (पासपोर्ट ) साठी अर्ज केला तेव्हा ते मुळचे ब्रह्मदेशाचे असल्याने त्यांना खुप अडचणी येत होत्या. शिबीराची वेळ जवळ येत होती आणि परदेशात सर्व तयारीही झाली होती. तरीही काही केल्या काही गंभीर नियमांमुळे आणि त्यांचा भाऊ आनंदमार्ग ची साधना शिकवीत असल्याने पारपत्र मिळत नव्हते. तेव्हा गोएन्काजींनी धम्माला आवाहन केले कि, "नवीन जन्मात (विपश्यना शिकल्यापासून)  मी शुद्ध धर्माचा (शील, समाधी, प्रज्ञा) चा नियमाची अभ्यास व बुद्ध वाणीचे  पालन करीत जीवन जगलो आहे. आणि परदेशी धर्मसेवा-लोकसेवेचे वृत्तीतुनच बुध्दवाणी द्यायला जात आहे. ह्या सत्यवचनाने, परदेशी विपश्यना साधकांचे व अनेकांचे कल्याण होवो! आमच्या प्रयत्नांनी त्यांना विपश्यना  साधनेचा लाभ मिळो !" इतरांच्या कल्याणासाठीच, त्यांना बुध्दवाणी मिळण्यासाठीच  गोएन्काजींनी  सत्य सांगून मंगल क्रिया केली! याला म्हणतात "सत्यक्रिया"!!  (संदर्भ : विपश्यना पत्रिका, विपश्यना विशोधन विन्यास )

जो हितकारी सत्य सांगत नाही बोलत नाही, तो सत्यक्रिया करूच शकत नाही!

मी भिक्षुं संघाचे, बाबासाहेबांचे आणि गोएन्काजींचे  आभार मानतो ज्यांनी आम्हाला तथागतांचा मंगल धम्म दिला!! तसेच  प्रिय धम्ममित्र   सदाभाऊ जाधवांचे आभार मानतो ज्यांनी प्रश्न विचारुन धर्म सेवेची चांगली संधी दिली!

खूप खूप धन्यवाद !
आशा आहे कि ह्या लेखाने खूप सारे अकुशल विचार किंवा धारणा दूर होतील!

सर्वांचे मंगल होवो!
संबोधन धम्मपथी 
मोबाइल : ९७७३१००८८६ (व्हाटसप )



















Saturday, 4 November 2023

सामाजिक सलोखा व बंधुत्व राखुन प्रबोधन


सामाजिक सलोखा व बंधुत्व राखुन प्रबोधन  

दिनांक : ५ नोव्हेंबर २०२३


आदरणीय अध्यक्ष, 

प्रज्ञासुर्य मित्र मंडळ 

मुलुंड पुर्व 

विषय : तुमच्या कार्यक्रमांसाठी धन्यवाद व अभिप्राय 

आदरणीय महोदय,

मी आयु संबोधन अशोक धम्मपथी, एक उत्सुक व सजग बुद्ध अनुयायी आहे. या पत्राद्वारे प्रज्ञासुर्य मित्र मंडळाच्या कार्यक्राचे मी अभिनंदन व धन्यवाद देत आहे. 

तुमच्या गेल्या दोन कार्यक्रमांना (भीम जयंती व अशोक विजयादशमी) मी उपस्थित होतो. त्यातुन अपेक्षित लाभ न होता, मन अप्रसन्न झाले. हे व्यक्तिगत मत तुमच्यापर्यंत पोहोचवणे मी माझे कर्तव्य समजतो.म्हणुन  मी विनम्र विनंती करतो कि, माझा अभिप्राय तुम्ही कृपा करून ऐकून घ्यावा. 

ह्या पत्राच्या पहिल्या भागात उद्भवलेले कटु प्रसंग व दुसऱ्या भागात त्यावरील उपायही सुचवत आहे. 

भाग पहिला : कटु प्रसंग 

१.१ पहिला प्रसंग- भीम जयंती : ह्या कार्यक्रमाला मी हजर होतो. संगीत, निवेदन व डेकोरेशन छान होते.  पण जो  वक्ता बोलायला आले होते, तो महत्वाचा मुद्दा आहे. कारण भीम-स्मृतीचे कार्यक्रम हे मुख्यत्वे प्रबोधनाचे व ज्ञान प्रसाराचे असावेत म्हणुन सर्वात महत्वाचे वक्ता आणि त्याचे प्रबोधन!! 

नियोजित वक्त्यांनी बासाहेबांच्याबद्दल (अगोदरच माहिती असलेले) मुद्दे  जसे हिंदु कोड बिल व स्त्रियांसाठी शिक्षण /वारसा हक्क असे काही मुद्दे मांडले होते. ते बाबासाहेबांचा भक्तिभावाने गुणगौरव करीत होते. पण सांगताना त्यांनी हिंदु धर्मात (संप्रदायात) अशी तजवीज नव्हती, हिंदु धर्मात अमुक नव्हते-तमुक नव्हते बोलत होते.. समाजात रूढी परंपरा व जातीआधारित व्यवस्था होती अशी वाक्ये हिंदु संप्रदायाची नवे घेऊन असे खुल्या मैदानात सारखे बोलत होते. असे बोलण्याने बाबासाहेबांचे गुणगान होत होते, पण इतरांच्या दोषांवर बोट दाखविल्याने त्यांचा आणि त्यांच्या संप्रदायाचा खुला अपमान होतो हे भान कोणी ठेवावे ? अशाने दोन समाजात दरी निर्माण होते, हे कोणी कळवावे? 

सार्वजनिक जाहीर प्रवचन करताना सत्य जरी बोलत असाल तर, ते इतरांच्या सांघिक/धार्मिक भावना दुखावणार नाहीत हि जबाबदारी वक्त्याने घेणे हे त्याचे आद्य कर्तव्य आहे असे मला वाटते. इतिहासात महामानव काय बोलले, ते पुन्हा पुन्हा बोलण्यापेक्षा त्याच्या मार्गदर्शनाने आजच्या कुठल्या समस्या सुटणार आहेत ते आदरपूर्वक व हितकर पद्धतीने सांगणे हे महत्वाचे आहे. बाबासाहेबांनीही तेच केले होते. महात्मा फुल्यांच्या कामाचा पाढा नेहमीच सांगत  बसण्यापेक्षा, त्यांनी त्या काळच्या समस्या सोडवण्यावर भर दिलेला होता . त्यामुळे घटनेने दिलेल्या "विचार स्वातंत्र्याचा'" उपभोग घेताना  इतरांचा अपमान करीत "बंधुता" ह्या शब्दाचा अर्थ व जबाबदारी जो विसरतो तो, व्यक्ती भीमानुयायी असणे शक्य नाही. इथे प्रत्येक बौद्ध बांधवांचे अनेक हिंदु बांधव मित्र, शिक्षक, मॅनेजर व शेजारी आहेत. अशी वाक्ये बोलण्याने, हिंदु बांधवांच्या समोर बौद्ध कुठल्या तोंडाने जातील? त्यामुळे खालील प्रश्न माझ्या मनात सारखे येवु लागले :
  1. हिंदु बांधवांच्या भावना कटू शब्दाने दुखावल्या गेल्याने, सध्याचे बौद्ध लोकलज्जेसाठी स्वतःला जर अबौद्ध मानु लागले तर त्याची जबाबदारी कोणी घ्यावी ?
  2. इतिहासातील बाबासाहेबांची कर्तबगारी पुन्हा सांगण्याने आज  समाजाच्या /देशाच्या कुठल्या समस्या सुटतील हे त्या वक्त्याने सांगितले का ?
  3. बाबासाहेबांसारखा नेता कसा तयार होतो, बाबासाहेबांसारखे सद्गुण  कसे मिळवायचे  किंवा चांगले नेते आज कशामुळे भ्रष्ट होतात? हे सांगणे भीमजयंतीच्या दिवशी महत्वाचे नाही का?
  4. काही भावना  दुखावल्या गेल्याने काहींनी अप्रसन्न होऊन जर गावातल्या गरीब-दुर्बल बौद्धांवर हल्ला झाल्यास तर त्याची जबाबदारी कोणी घ्यावी ?
  5. काही भावना  दुखावल्या गेल्याने काहींनी अप्रसन्न होऊन जर नोकरीत,व्यवसायात, गावात, सोसायटीत बौद्धांना टाळु/हिणवु  लागले तर त्याची जबाबदारी कोणी घ्यावी ?

हे प्रश्न गंभीर व अनुत्तरीत असल्याने, अशा अबोध, दिशाहीन व बेजबाबदार वक्तव्याची जबाबदारी वक्त्या सोबत आयोजन कर्त्यांवर व त्या-त्या समाजावरही असते. कारण हाच समाज अशा कार्यक्रमांना पैसे देतो व कार्यक्रमाला उपस्थित राहतो. तसे आपल्याकडून नकळतही  होऊ नये हीच बौद्ध जनतेची भावना त्या कार्यक्रमातील ८०-९०% रिकाम्या खुर्च्यांची आपल्यापर्यंत स्पष्टपणे पोहोचवली आहे. 

१.२ दुसरा प्रसंग - अशोका विजयदशमी  : ह्या दिवशी कार्यक्रमाची रूपरेषा अनियंत्रित झाली, मी स्वतः प्रमुख वक्ता होतो. आणि दिलेल्या वेळेच्या ३० मिनिटे अगोदरआलो होतो. ऑफिसला सुट्टी नसल्याने आणि कार्यक्रम वेळेत सुरु न होता लांबल्याने मी निघून आलो. त्याबद्दल क्षमस्व!!

ह्या कार्यक्रमासाठी माझाकडे दोन-अडीच तासाचाच वेळ होता व हि  अडचण अगोदरच आयु अमित केदारेना वेळेत कळवली होती. एक तास थांबूनही कार्यक्रमाची रूपरेषा बिघडली आणि तरीही मला धर्मसेवेची नियोजित संधी मिळाली नाही, तेव्हा मी निषेध करीत, प्रज्ञासुर्य मंडळाचा निरोप घेतला. 

जेव्हा  मी ४५ मिनिटांनी ऑफिसच्या कामाची तजवीज करुन जबाबदारी व शब्द पूर्ण करण्यासाठी कार्यक्रमात पुन्हा आलो, तेव्हा हिंदु समाजाचे प्रमुख चे स्थानिक नेते उपस्थित होते. त्यांच्या उपस्थित सर्व बौद्ध जनतेसमोर एक उच्च सुशिक्षित व प्रतिष्ठित स्त्री प्रवचन देत होती. दुर्भाग्यवश ती स्त्री (कदाचित अनियोजित वक्ता असल्यामुळेही )  बौद्ध लोक हिंदु सणांची व संताची आश्रय घेतात म्हणुन बौद्धांची व हिंदु सणांची व संताची निंदा करू लागली.  हि निंदा एवढी दुर्दैवी व कटु होती कि, हिंदु नसूनही मला खूप खूप वाईट वाटले!  

मी माझ्या अनेक हिंदु बांधवांचा खुप खुप ऋणी आहे. हे आपल्याला माहिती आहे कि, स्वतःच्या आईवर स्नेह व प्रेम करणारा मुलगा,  इतरांच्या आईची निंदा करत नाही. तसेच स्वतःच्या श्रद्धास्थानाला मानणारा, दुसऱ्याच्या श्रद्धास्थानाची निंदा करू शकत नाही.त्या स्त्रीला थांबवण्याची प्रबळ इच्छा झाली, पण मी स्वतः ला थांबवले. त्यानंतर प्रवचन चालु असताना १२:४५ वाजता खीरदानाचा सुरु झालेला कार्यक्रम हाच्या कार्यक्रमात व्यत्यय आणीत  होता. 

कार्यक्रमात आलेले हिंदु समाजाचे प्रमुख चे स्थानिक नेते १००% अप्रसन्न झालेले असणार यात मला तिळमात्र शंका नाही. पण त्यांनी सामंजस्याने घेतले, पण तिचे भाषण आवरल्यावर विनम्रपणे सभात्याग केला व निरोप घेतला. 
 खालील प्रश्न माझ्या मनात सारखे येवु लागले :
  1. हिंदु बांधवाना सन्मानपूर्वक बोलाऊन त्यांचा अपमान करणे हे बौद्धांचे कर्तव्य व हक्क आहेत का?
  2. त्यांचा अपमानावर  त्या वक्त्या, आयोजक व बौद्ध समाज  मलम/उपचार कसे लावणार आहेत?
  3. त्या वक्त्यांनी बौद्धांचे बुध्दवाणी लोकांपर्यंत पोहोचत नाही, ती कशी पोहोचवावी व काय धोरणे ठरवावीत हे सांगितले का ?
  4. काही भावना  दुखावल्या गेल्याने काहींनी अप्रसन्न होऊन जर गावातल्या गरीब-दुर्बल बौद्धांवर हल्ला झाल्यास तर त्याची जबाबदारी कोणी घ्यावी ?
  5. काही भावना  दुखावल्या गेल्याने काहींनी अप्रसन्न होऊन जर नोकरीत,व्यवसायात, गावात, सोसायटीत बौद्धांना टाळु/हिणवु  लागले तर त्याची जबाबदारी कोणी घ्यावी ?
  6. गरीब, दुबळा व अल्पसंख्याक बौद्ध समाज सबळ  समाजाची निंदा करताना त्याच्याकडे काही सुपरपॉवर आहे का ? आणि जरी ती असली तर, असा दुरुपयोग भीम-बुद्धाला अपेक्षित आहे का?

ह्या प्रश्नांची उत्तरे वक्ता, आयोजक  व बौद्ध समाज यांना द्यावी लागतात, आणि ती कोणी देऊ शकत नाही. त्यामुळे नोकरीत,व्यवसायात, गावात, सोसायटीत बौद्धांना स्पष्ट/अस्पष्ट   टाळु/हिणवु  लागले आहेत. याची दखल उच्च सुशिक्षित व प्रतिष्ठित घ्यावीच लागेल. 


 धर्मांतराच्या ६७ वर्षांनंत सर्व बौद्धांना, आता तरी हे समजायला  हवे कि द्वेष-दुर्भावना दिल्याने अशांती वाढते. आणि जिथे बैचेनी व अशांती असते, तिथे शहाणी माणसे जात नाहीत. आणि तिथे काही काळासाठी गेल्यास थांबत नाही. 

जोपर्यंत बुद्ध वाणी सर्व जाती-धर्मापर्यंत पोहोचवण्याठी, कुठली धोरणे, कुठली पद्धत, कुठले वक्ते आपण ठरवायचे  व ते कसे सुधारायचे जो पर्यंत आपल्याला कळत नाही तो पर्यंत आपल्याकडुन देशसेवा व मानवसेवा होणार नाही. अपयश निश्चित आहे.  

भाग पहिला : कटु प्रसंग समाप्त 

भाग दुसरा  : कटु प्रसंगावर उपाय-योजना 

२.१ पहिला प्रसंग- २०२३ भीम जयंतीच्या दिवसासारखे   दुर्दैवी भाषण टाळण्यासाठी उपाय-योजना :
  1. कोणत्याही कार्यक्रमाला वक्त्यांची निवड करण्यापूर्वी त्याचे भाषण, व्यक्तिमत्व, शब्द प्रभुत्व, मुद्द्यांची मांडणी, सामाजिक सलोख्याची जबाबदारी व विचार   ऐकूनच व तपासूनच घ्यावे.
  2. पाली भाषा माणसांना व निर्जीव मूर्तीला समाजात नसल्याने ३०-५० मिनिटे घेतल्याने कोणी प्रसन्न होईल अशी अंधश्रद्धा पसरवण्यापेक्षा हि औपचारिकता ५-१० मिनिटांत संपवावी. 
  3. वक्त्यांना अगोदरच कळवावे कि दोन संप्रदायात वाद-भांडणे होतील असे मुद्दे न मांडलेले बरे. विष पेरुन कोणाच्या भावना दुखवु नये. कारण आगीने आग विझत नाही, ती पाण्यानेच विझते ! हा सनातन(पर्मनंट) धर्म/नियम  आहे. 
  4. प्रबोधन करताना इतर जाती-धर्माचा आदर पुर्वक उल्लेख करावा अन्यथा अबौद्धच नाही तर बौद्ध हि खुप  नाराज होतात. याची कल्पना द्यावी.
  5. शक्य झाल्यास वक्त्यांकडुन त्याच्या प्रवचनाची लेखी प्रत मागवावी. आणि अनुचित मुद्दे काढण्याची मागणीच करावी. 
  6. उदाहरणासाठी लक्षात ठेवावे एक खरा ख्रिश्चन आचार्य, इतरांची निंदा करण्याच्या ऐवजी प्रभू येशुची मैत्री, प्रेम व सद्भावना लोकांपर्यंत पोहोचवतो. ज्याने लोकांचे (ख्रिश्चन व अ-ख्रिश्चन )  प्रभू येशु वरती प्रेम व सद्भावना वाढते.  हे तर बौद्धांनाही जमायला पाहिजे!!

२.१ दुसरा प्रसंग- २०२३ अशोका विजयादशमी च्या दिवशी दुर्दैवी भाषण आणि कार्यक्रमाचे अनियोजन टाळण्यासाठी उपाय-योजना :
  1.  सर्वाना मोबाईल बंद/सायलेंट ठेवायला सांगावा. व `बोलण्यासाठी फोन घेऊन बाहेर जाण्यास सांगावे. 
  2.  पालीतुन होणारा बौद्ध पुजा पाठ हा बुध्द मूर्तीला व माणसांनाही समजत नसल्याने त्याचा अपेक्षित परिणाम होत नाही. म्हणुन तुम्हाला हे दिसले असेल, कि  अधिकांश  बौद्ध समाज सकाळी ११ ची वेळ दिली असताना १२.३० वाजता आला होता. याला अपवाद होते आयोजक व नोकरीतुन निवृत्त झालेली माणसे!
  3. बौद्ध पुजा पाठ घेणारे भंतेजी/बौद्धाचार्य यांना कितीही इच्छा असली तरी, जर ते मुख्य प्रवचनकार नसतील तर, त्यांना ५-१० मिनिटापेक्षा अधिक वेळ घेऊन कार्यक्रमाची रूपरेषा संकटात आणू नये. अशा वेळेस नियोजित अध्यक्षाने जबाबदारीपूर्वक इशाऱ्याने/बेल वाजवुन अनियोजित भाषण थांबवावे. कारण मानसशास्त्रानुसार ५० मिनिटानंतर माणसे कंटाळतात, ६०+ वयाच्या लोकाना लघवीला जावे लागते. तरुण वर्ग कंटाळुन निघुन जातो. आयोजकांना हे अपयश खुप जिव्हारी लागते. 
  4. कार्यक्रमाच्या मुख्य वक्त्याला १०-१५ मिनिटानंतर लगेच संधी द्यावी, कारण स्वतःचे भाषण लक्षात ठेवणे, मुद्देसूद मांडणे व भाषणाचा उत्साह कायम राखणे हे खुप कठीण काम आहे. १-२ तासाने तो वक्ता स्वतःच कंटाळतो व कसे बसे भाषण आवरून निघुन जातो. प्रत्येकाने स्वतःच्या दिवसाचे नियोजन नियोजित वेळ ठरवुन केलेले असते. श्रोते बैचेन  झाले कि वक्ता हि भाषण संपवुन टाकतो. आयोजकांना व जनतेसाठी हे अपयश खुप दुर्दैवी असते. कारण वर्षाच्या  ३६५ दिवसांपैकी बौद्धांकडे २-३ कार्यक्रम असतात.
  5. जर कार्यक्रम ३-४ तासांचा ठेवायचा असेल, तर ६०-७० मिनिटांनी ब्रेक/विश्रांती घ्यावी. अशाने लोकांची मने पुन्हा टवटवीत होतील. 
  6. "फक्त दोनच शब्द बोलतो" असे बोलून माईकचा  ३०-५० ताबा मिनिटे घेणाऱ्या अनियोजित वक्त्यांना थांबवण्याची जबाबदारी हि अध्यक्ष व सूत्रसंचालकांची असते.  ती त्यांनी हिंमत ठेवुन, ठामपणे व प्रेमपूर्वक पार पाडावी. 
  7. प्रवचन जर वेळेत सुरु केले तर, प्रवचन चालु असताना खीरदानाच्या कामाने व्यत्यय येणार नाही. 

मला विश्वास आहे ह्या समस्या व त्यावरील उपाययोजना लक्षात घेऊन नियोजन केले कि, मेहनत घेऊन आयोजन करणाऱ्यांना उच्चतम समाधान, यश, प्रतिष्ठा व सामाजिक कामांना गती मिळेल. तसेच इतर अबौद्ध  समाजासोबत सामाजिक सलोखा व बंधुत्व टिकविण्यास मदत होईल. कार्यक्रम थोडक्यात पण प्रभावी झाल्यावर लोक (खास करून तरुण मंडळी) कार्यक्रमाला येतील. 

माझे विचार व मत सांगताना मी लहान तोंडी मोठा घास घेतल्याचे जाणवत असेल, किंवा'कोणी नाराज झाले असल्यास मी तुमची दोन्ही हात जोडुन माफी मागत आहे. 

आपल्यातला स्नेह व जिव्हाळा वृद्धिंगत व्हावा ह्या अपेक्षेने पात्र पूर्ण करतो. खुप खूप धन्यवाद व जयभीम!!

संबोधन धम्मपथी 
मुलुंड पूर्व , मुंबई ८१. 

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