Monday, 12 December 2022

क्षांति पारमिता

 क्षांति पारमिता 

शांति प्रिय सज्जनो सन्नारियों,

आओ, आज क्षान्ति पारमिता के बारे में विमर्श करें। भगवान गौतम बुद्ध ने अपने जीवन में सनातन-शाश्वत धर्म का स्वयं साक्षात्कार किया एवं उसको जनता में निस्वार्थ रूपसे मुक्त हस्त बांटा। उन्होंने निर्वाण प्राप्ति के मार्ग को भी सहज-सुलभ पद्धति से सुआख्यात किया।  उस लोकोत्तरीय अवस्था को प्राप्त करने की लिए मनुष्य को दस परम अवस्थाओंको परिपुर्ण रुप प्राप्त करना होता है।इन्हे  बुद्ध वाणी में पारमिताएँ कहते है. ये दस पारमिताएँ  निम्न प्रकार की होती है: १: दान , २:शील, ३: निष्क्रमण, ४:प्रज्ञा, ५: वीर्य, ६:क्षान्ति, ७:सत्य, ८:अधिष्ठान, ९: मैत्री, १०: उपेक्षा (सन्दर्भ :१ )। एक महत्वपूर्ण यह बात है, की इन दसों में कहीं 'श्रद्धा' नहीं है। जब की श्रद्धा पांच बलों मैं प्रथम है (सन्दर्भ :१ )। लेकिन श्रद्धा धर्म के विविध रूप में अंतर्निहित है और दिखाई दे रही है।  उदाहरणार्थ बिना श्रद्धा के कोई दान और शील पालन नहीं कर सकता ।  

श्रद्धावान साधक इनकी परिपुर्ण प्राप्ति से दस संयोजनों से स्थायी रूप से मुक्त हो जाता है, अर्थात अपनी दुःखोंसे मुक्ति पाता है। उस अनुपम  लोकोत्तर और इन्द्रियों से परे कि  नितांत मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है जो शाश्वत है, ध्रुव है। इसिलिये धर्म की इन विविध  विषयों/पारमितांको को (एक ही कालखंड में अनेक विषयों का अभ्यास जैसे की दसवीं की कक्षा) या फिर एक कालखंड में एक ही विषय/पारमिता का अभ्यास अनेक जन्मों में करता है !! इन दस विषयों की अर्जित पद्धति दोनों में से चाहे जो भी हो, इन सभी विषयों में  १००% गुण प्राप्ति होने पर ही नितांत मुक्त, अर्हन्त अवस्था प्राप्त की जाती है. तो वह साधक श्रावक बुद्ध याने अर्हन्त बन पाता  है। इन १००%  गुणों की लक्ष प्राप्ति करते करते न जाने कितने जन्मों का अवधि लग सकता है। लेकिन निर्वाणिक अवस्था का पहला स्टेशन (स्रोतापन्न) पा  लेने के बाद साधक अधिक से अधिक सातवें जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लेता है।   (सन्दर्भ :२  )


बुद्ध तीन प्रकार के होते है।  सम्यक संबुद्ध , प्रत्येक बुद्ध और श्रावक बुद्ध। संबुद्ध वह  होते है जो धर्म की शिक्षा और दुःखमुक्तिदायिनी विद्या का स्वयं अनुसन्धान करते है और स्वयं नितांत मुक्त अवस्था प्राप्त करते है।  इसदृष्टि से वें आत्मनिर्भर होते  है। संबुद्ध दो प्रकार के होते है: सम्यक संबुद्ध और प्रत्येक बुद्ध ! सम्यक संबुद्ध होने के लिए अनेक जन्मों में  ( दसों परमिताओंकी पुर्ति की यात्रा), हर दस पारमिताओं का सर्वोच्च अभ्यास करना होता है।  और हर  जन्म में वो अपने साथ औरों की मुक्ति का भी यथोचित प्रयास करते है।  इसीलिए परहितकारी होने के कारन सम्यक(परिपुर्ण ) रूप से संबुद्ध होते है। 

जब की प्रत्येक बुद्ध, दस पारमिताओं की पुर्ति की यात्रा में किन्ही कारणोंसे औरों की मुक्ति में सहायक नहीं होते।  अर्थात उन्होंने स्वतः सम्बोधि भले ही प्राप्त की हो, परंतु किसी अन्य मनुष्य को धर्म नहीं सिखा सकता।  इसीलिए प्रत्येक यानि एकाकी संबुद्ध बनते है। इस संबोधि (स्वयं प्राप्त की हुयी बोधि ) प्राप्ति की यात्रा में उनकों (सम्यक बुद्ध और प्रत्येक बुध्द)  अनगिनत जन्मों में भव संसरण करना होता है। पारमिताओं की पुर्णता करते हुए उन्हे जितने   जन्म लेने पड़ते है, उन-उन जन्मों में उसको बोधिसत्व (जो आगे जाकर संबुद्ध बनेगा) कहते है। सम्यक संबुद्ध बनने के लिए , दस पारमिताओं का अभ्यास व उपलब्धि श्रावक या प्रत्येक  बुद्ध  की तुलना से गंभीर एवं त्रिस्तरीय होती है।

श्रावक बुद्ध वह है जिसने सम्यक संबुद्ध से धर्म और धर्म प्राप्ति की विधि (विपश्यना) सीखी/सुनी और दस पारमिताओंसे दस संयोजनों से मुक्ति पायी ।  श्रावक बुद्ध सम्यक संबुद्ध पर निर्भर होते है, क्योंकि सम्यक संबुद्ध से उन्हें धर्मज्ञान/मुक्तिमार्ग की प्राप्ती होती है  . 



सम्यक संबुद्ध  बनने की अनगिनत जन्मों की यात्रा में दस पारमिताओं की पुर्णता या सघनता  (१०० गुण ) के लिए अपने सांसारिक धन-संपदा, वैभव-ऐश्वर्य, प्रभुत्व-सत्ता है  नहीं बल्कि अपने किन्ही किन्ही अंगो का भी परित्याग करना पड़ता है।  इस ऐहिक (भौतिक व अल्प शारीरिक) परित्याग से दस मुल पारमिताएं के साथ दस उप-पारमिताएं जुड़ जाती है। 

इस से भी आगे सम्यक संबुद्ध  बनने के लिए, किसी और की मुक्ति में सहायता करते हुए दस परमिताओं को पुरा करने के लिए जब बोधिसत्व अपने पुरे जीवन का भी त्याग करते है, तब नयी और दस परमार्थ पारमिताओं को अर्जित करते है।  इससे बोधिसत्व अपने सम्यक संबोधि की दिशा में १०० गुण पाता है।  फिर उनका अगला जन्म सम्यक संबुद्ध के साथ अंतिम जन्म सिद्ध होता है।  

दस परमार्थ  पारमिताओंके को समझाने के लिए एक उदहारण देता हुँ।  सन १९६३ में व्हिएतनाम मे उस समय की सरकार बड़ी अन्यायी, क्रुर और पक्षपाती थी। अन्य बुद्ध शिष्य और बुद्धवाणी की सुरक्षा उस समय की सरकार से सहकार्य की अपेक्षा में जब सारे उपाय निरर्थक साबित हुए तब वरिष्ठ बुद्ध भिक्षु थिच कुआन डक  ने वीर्य पारमिता से उद्योग कर के  अपने जीवन का दान दिया।  उन्होंने यह अधिष्ठान लिया के, "जब तक में में जीवित हुँ तब तक इस अग्नि के दाह से ना तो मैं अपना आसन छोड़ुंगा, ना हीं चिल्लाऊंगा और न ही थोड़ी सी भी हलन-चलन करूँगा" ।  मृत्युपुर्व उन्होंने अपने अंतिम पत्र में देश के उस समय के अन्यायी अध्यक्ष को मैत्री-करुणा पूर्वक सभी देशवासियों और सम्प्रदायों के प्रति स्नेह-सद्भावना रखने का विनम्रतापुर्वक आवाहन किया।  जीवन त्यागने के पुर्व उन्होंने अनेक वर्ष, सभी अन्यायों का धीरज और साहस के साथ (क्षांति पारमिता से )सामना किया और सरकारी   अधिकारीयों से धर्मपुर्वक संघर्ष किया। उनके बलिदान के बाद भी अनेक भिक्षुओंने भी सरकार को मनाने के लिए जीवनदान दिया ।  इस महान त्यागों के परिणाम स्वरुप ही देश में समता और भाईचारे की शुरुआत हुयी।  (सन्दर्भ :३   )। 


आत्मदहन करते हुए भिक्षु थिच कुआन डक की अंतिम तस्वीर 

किसी बोधिसत्व का एसा पारमिता पुर्वक परमार्थ कल्याणकारी त्याग बड़ा ही दुर्लभ होता है।  इसिलए कहा जाता सम्यक संबुद्ध का उत्पन्न होना एक अत्यंत दुर्लभ और महामंगलदायी घटना है।  कोई भी व्यक्ति इन तिस पारमिताओंको प्राप्त करके ही सम्यक संबुद्ध बनता है।  श्रावक बुद्ध बनने  के लिए केवल पहले की दस पारमिताएं ही पर्याप्त है।  (सन्दर्भ :१ )


दानादि धम्म विधिना जितवा मुनिन्दो ..,

हम देखते है की सिद्धार्थ गौतम ने जब मार को अकेले ही पराजित किया, तो कहा गया कि दान और अन्य पारमिताओं के बल से ही उन्होंने यह विजय प्राप्त की (सन्दर्भ :४  )। 


मेरे विचार से, अर्हंत/संबोधि फल के लिए निश्चित रुप से ही सभी दस पारमिताएं अनिवार्य हो लेकिन, जब बात आती है आसपास के धर्मप्रेमी मनुष्यों को प्रेरणा, धैर्य और ध्येय देने की लिए कल्याणमित्र /गुरुबंधु को सत्य, शील, क्षांति एवं मैत्री ये चार बहोत ही महत्वपुर्ण पारमिताएं  है। आटानाटिय सुत्त में इस का उद्घोष इस प्रकार से है(सन्दर्भ :५ )।  :

तेसं सच्चेन सीलेन, खन्ति  मेत्ता बलेनच, 

तेपि त्वं अनुरक्खन्तु, अरोगेन सुखेनच || 


विपश्यना सीखने कि बाद जैसा की पुज्य गुरुदेवजी ने कहा, हमें स्मृती और संप्रज्ञान को दिनरात अभ्यास करना होता है। सैंतीस बोधिपक्षीय धर्मों (सन्दर्भ :६ ) में 'स्मृति' पारमिता स्पष्ट-अस्पष्ट रूप से ११ बार कही गई है।  तो में उसी का अभ्यास ज्यादा करता था।  लेकिन अपने आप की चित्त वृत्तियों को समझने के बाद मैंने हाल ही में 'क्षांति' पारमिता पर अधिक जोर दे रहा हुँ। ये ठीक उसी तरह है की जैसे, घर का एक कमरा रोज  साफ करते करते, अन्य कमरे के ऊपर उचित ध्यान न गया हो, तो अब उस कमरे की सफाई शुरु कर दी है ।  

इसीलिए इस लेख मे मेंने क्षांति पारमिता पर विचार संदर्भसहित सामने रखता हुँ। क्षांति पारमिता का सही अर्थ किसी एक हिंदी शब्द के आधार पर नहीं कहा जा सकता। आचार्य गोयन्काजीने बुद्ध जीवनी जे अनेक प्रसंगो को उजागर किया है।  गुरूजी के अनुसार क्षांति का सही अर्थ: अमर्याद और मंगलमयी धैर्य,  चित्त की दृढ़ता, संयम (जिसमें उद्यमता हो) और सहिष्णुता बताया है। ये चारों गुणों का संगम हो जाये तो क्षांति पारमिता की सही संज्ञा बन सकती है। क्षांति पारमिता से मैं यह समझ सकता हुँ के मनचाही न होने और अनचाही होने पर, धीरज रखना चाहिए, आनेवाले समय में स्थिति में सुधर होगा (सकरात्मता-आशावाद) । और यदि किसी हालत में सुधर न भी हुआ , तो भी मन में सारे प्राणियों के प्रति सद्भावना बनी रहनी चाहिए, शील नहीं छुटना चाहिए और नहीं मन में अकुशल भावनाउत्पन्न होनी चाहिए।  तो ही क्षांति पारमिता पुरी होगी। तो आओ उन प्रसंगो को देखे और उनसे क्षांति-धर्म सीखें जो मुझे प्रेरणा देते है। 

१. पहला प्रसंग :  अनेक लोगों की जान बचाने के लिए जब तथागत ऐसे सुने घर गए जहा दुर्दम्य और विक्राल  यक्ष आळवक  रहता था। आळवक पर घर पर नहीं था तो भगवान ने  घर में उचित स्थान पर ध्यानस्थ हुए। आळवक क्रोध के मारे ने उन्हें अपमानित करके उन्हें घर से निकलने को कहा।  भगवान ने कहा ' आयुषमान , ठीक है। " और बाहर चल दिए। उनके जाने के बाद तुरंत कहा , "श्रमणा, अंदर आ जाओ" तो भगवान ने "ठीक है। " कहकर पुनः भीतर आये।  यही किस्सा ठीक  तीन बार हुआ, जैसे पुनः प्रसारित हुआ हो।  तब भगवान ने दृढ़ निश्चयसे से कहा, "मैं अब नहीं जाऊंगा तुम्हे जो ठीक लगे सो करो।" ऐसा कहने पर आळवकने। उन्हें  क्रूरतापुर्वक हत्या की धमकी देने पर भी अपने निश्चय से नहीं हटे।  उनका ध्येय कल्याणमित्रता हिमालय की भांति ऊँचा और  भाँति विशुद्ध था। फिर  क्षांतिपुर्वक उन्होंने क्रोधी लेकिन विद्वान आळवक के प्रश्नों के उत्तर अपनी समताभरे चित्त से दिए (सन्दर्भ :७  ) ।  यह प्रसंग उच्च दर्जे का धैर्य, चित्त की दृढ़ता, संयम और सहिष्णुता बताता है। 

२ .दुसरा  प्रसंग :  जन्म से सुखवस्तु घर में पला बड़े सिद्धार्थ गौतम का आदर तो हो ही रहा था।  पर उनके मैत्रीपुर्ण व्यवहार और प्रभावी व्यक्तिमत्व के कारण लोग उन्हें बहुत प्रेम-स्नेह भी बहुत देते थे। अगर ऐसा जीवन व्यतीत हुआ हो और थोड़ा भी उपमर्द या अनुचित व्यवहार हो तो व्यक्ति के उद्विग्नता का क्या कहना?  क्रोध और उद्विग्नता का  कारण  भी तो है, "अमुक ने मेरा अपमान  किया!" . इससे भी बड़ा घातक अपमान ऐसे व्यक्ति का हुआ जिसे राजा-प्रजा ही नहीं बल्कि समस्त देवलोक भी दिनरात पुजते है।  

ऐसे एक प्रसंग में , अग्गिक भारद्वाज ब्राह्मण ने तथागत को कहा , "आगे न बढ़...वहीं रुक जा ए बहिष्कृत, ए  मुण्डक! मेरा यज्ञ ख़राब मत कर!" ऐसे दुत्कारने पर भी क्षांति पारमिता के कारण भगवान ऐसे अपमान को सह सके. मंगल मैत्री देते हुए उन्होंने कहा (सारांश) की बहिष्कृत/वृषल  किसे कहते  है।  फिर कहा  , "हे ब्राह्मण, जन्म से ना कोई बहिष्कृत होता है न जन्म से कोई ब्राह्मण! कर्म से ही कोई बहिष्कृत होता है और कर्म से ही कोई ब्राह्मण।"

कुछ ऐसा ही प्रसंग अक्कोस भारद्वाज के साथ हुआ, क्षांतियुक्त सुदान्त चित्त से भगवान ने उसमें धर्म जगाया।  जो किसी व्यक्ति से भी और किसी प्रकार से भी क्रोधित नहीं किया जा सकता और जो दूसरोंको भी क्रोधित नहीं करता, उसी व्यक्ति लोग मुनी कहते है (सन्दर्भ :९  ) ।  


३ .तिसरा प्रसंग:  आचार्य उरुवेल कश्यप और उनके बंधुओंके अनेक अनुयायी भगवान से बहुत क्रुद्ध हुए थे, क्योंकि वे सब भगवान के अनुयायी बन चुके थें।  तो ऐसे अंध भक्तो से अनेको बार भिक्षुओंको गाली, दूषण या विविध लांछनो को भी दिनरात सामना करना पड़ता था ।  अगर ऐसे अप्रिय स्थिति कुछ घंटो या दिनों में निश्चित रूप से समाप्त होनेवाली है इसकी जानकारी हो, तो आदमी उसको दिन गिनते-गिनते सहन भी कर सकते है । लेकिन अगर मालुम ही न हो, की ये बहिष्कृतता कब समाप्त होगा तब सच्ची परीक्षा (अमर्याद धैर्य) होती  है।  जैसे अशुद्ध सोने को मालुम नहीं होता की सुनार कितने समय तक मुझे भयंकर भट्टी  में तपाने वाला है। तो धैर्य,साहस और संयम  के अभ्यास भी कोई निश्चित सीमा नहीं, क्योंकि सब अनिश्चित ही तो है।  ऐसा तप और क्षांति पारमिता का सामर्थ्य बुद्धपुत्र भिक्षु कोलित (मोग्गालन) और भिक्षु उपतिष्य (सारिपुत्त) ने दिखाया जो अभी तक अरहंत नहीं बने थे।  

४ .चौथा प्रसंग : तथागतने अनेक प्रेरणादायी और गंभीर प्रसंगोंमें क्षांति पारमिता का दर्शन अपने आचरण द्वारा दिया है।  अनुपम शास्ता है तो उनके शासन में प्रवीण अनेक गृहस्थ साधक-साधिकाओंए ने भी अनिच्छित, अवांछित अप्रिय प्रसंगों में क्षांति पारमिता दर्शित होती है।  

ऐसा ही विपश्यी शिष्य राजा बिंबिसार! जिसने अपने पुत्र को जो संपुर्ण सत्ताप्राप्ती के लिए अंध हो कर अपने ही सत्ता-निवृत्त हुए पिता बिंबिसार कि हत्या करने चला था।  उसी को बिंबिसार ने विकसित क्षांति पारमिता से वात्सल्यभाव दिखाकर केवल माफ़ ही नहीं किया बल्कि मन में किसी बात का द्वेष भी नहीं रखा। अंत में अपने पिता को कैदी बना कर तड़पा-तड़पा कर मरवा दिया।  अंत तक बिंबिसार ने क्षांति (अमर्याद धैर्य-धीरज) के आधार पर न उसके बार में क्रोध जगाया न अपने को व्याकुल बनाया।  इस स्वाभाविक नकारात्मक मनोस्थिति के विपरीत उसका ह्रदय अपने पुत्र के प्रति सदा करुणा से भरा रहा! चित्त से मंगल मैत्री ही निकलती रही!

फुट्ठस्स लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न कम्पति।
असोकं विरजं खेमं, एतं मङ्गलमुत्तमं॥11॥ (सन्दर्भ :१०   )

जिसका चित्त आठ लोकधर्मों ((लाभ-हानि, यश-अपयश, निंदा-प्रशंसा, सुख-दुख)  के संपर्क से प्रकंपित नहीं होता, जो अशोक, निर्मल एवं निर्भय रहता यह उत्तम मंगल है। 

मैंने जाने-अंजाने में अनेकोबर मेरे बच्चों और पत्नी को व्याकुल-क्रुद्ध हो कर डांटा है। ऑफिस/समाज में कुछ एक घटना  हुयी तो उसी चिंतन से और नकारात्मक स्थिती का चिंतन कर के मैं वो स्नेह व आदर नहीं दे सका जिसके वें हक़दार है।  इस सप्ताह की दो घटनाएं बताता हुँ जिन से मैंने अपने आप को क्षांति पारमिता से संभाल लिया।  

प्रसंग १ : मैंने बच्चों के लिए ऑफिस से आधे दिन का आवेदन चढ़ा कर छुट्टी लेली।  बॉस ने सन्देश भेजा, "कितनी छुट्टियां ले रहे हो?  पहले क्यों नहीं बताते? अभी जाओ,अगले दिन  को बात करेंगे। " मैंने हमेशां की तरह तर्क-वितर्क करना शुरु कर दिया।  अब क्या होगा? बॉस कितना डांटेगा? भला बुरा कहेगा? प्रायः ऐसी भय में अपना भय पत्नी को बताता हूँ जो मेरा सहस बढाती है।  इस बार उसे न बता कर, मैंने अनित्यबोध के साथ अमर्याद ध्येय और चित्त की दृढ़ता कायम रखने का काम शुरु कर दिया।  ५% धर्म विचारोंने ९५% अकुशल विचारोंको पराजित कर दिया।  क्षांति पारमिता से मैंने अपने पत्नी और बच्चों को न केवल डाँटा बल्कि स्नेहपुर्ण व्यवहार भी किया।  यह मेरे लिए अद्भुत और चमत्कारपुर्ण था।  

प्रसंग २ : मेरा बेटा  दसवीं कक्षा में होने पर भी, बड़ा बीमार, आलसी और अनुत्साही होकर अनुशासनहीन और गैरजिम्मेदारीपुर्ण व्यवहार करता है।  मैं उसे प्रायः डांटता हुँ और बहुत बार कटुता का प्रभाव दिखता है। इससे कोई लाभ नहीं होता, उससे उसका आत्मविश्वास और कम हो जाता है।  मैं इसे भी खुब जानता हुँ की वो मुझसे बहुत ही प्यार-आदर करता है।  पर फिर भी बात सही दिशा में नहीं जा रही है।  पर मेरी व्याकुलता और उसके प्रति रुक्षता बढ़ रही है। आज उसको मैंने क्षांति पारमिता (हम नहीं जानते यश मिलेगा भी या नहीं, पर अमर्याद धैर्य रख कर अनित्यबोध जगाया)  से समझाया तो देखा, भले ही वो समझा हो या नहीं समझा वो बात अलग।  लेकिन मैंने उसे समझाते समय, मन में कटुता या कठोरता नहीं आने दी (या बहुत की कम थी) और ना ही उस के प्रति अनादर रखा। उसे क्षांति पूर्वक प्रेमभरे शब्दोंसे कुछ प्रश्न पुछे जिससे उसकी मनोभावों का मुझे अंदाजा हो। मैंने प्रयत्न तो किया, पर समताभाव था।  भाविष्य में पुत्र द्वारा आनेवाले भय से मैंने कुछ काल के लिए ही सही छुटाकारा पा लिया। उसका पता नहीं, पर मेरा तो कल्याण हुआ क्योंकि क्षांति पारमिता के कारन में मेरी व्याकुलतासे बच पाया ।  उसका भी भला हो ऐसी मंगल कामना बिना चिंता/भय के साथ जगी।  यह तो पहले कभी नहीं हुआ था। 

प्रसंग ३  : आज का ही किस्सा है।  ऑफिस में आसपास के लोगों की आलास, कुटनीति और छलकपट से बहुत ही व्याकुल रहता हूं।  कुछ दिनों पहले ऐसे ही लोगों को मैंने अपने बॉस के सामने खुब डांटा।  बॉसने मुझें पप्यार से समझाया फिर भी मुझसे सहन न हुआ।  अभी इन्ही लोगों ने मेरे विरुद्ध के शिकायत की के, मैं बहुत ही डांट रहा हुँ।  इस बात के लिए बॉस ने मुझे दोष दिया और कई बार सुनाया भी। अब किसी का फोन आता है कीतो भय जागता है की बॉस उस या किसी नए कारण से डांटेगा या न जाने मेरी अच्छी प्रतिमा/छवि अवश्य ही बहुत मलिन हो गयी होगी।  और न जाने मेरी छवि कब सुधरेगी।  तो क्षांति पारमिता (अमर्याद धैर्य-चित्त की दृढ़ता) का अभ्यास विपश्यना भावना (स्मृति-संप्रज्ञान) से अनित्यबोध जगाता हो तो विकार मानस के स्टार पर आते आते निरुद्ध हो जाते है।  

आशा है क्षांति और अन्य पारमिताओं से जैसे मेरा थोड़ा सा कल्याण हो रहा है, वैसा औरों का भी हो। 

 

सबका मंगल हो !

संबोधन धम्मपथी 



सन्दर्भ :

१. त्रिपिटक में सम्यक सम्बुद्ध, भाग १ , पृष्ठ ७०  : 

२. त्रिपिटक में सम्यक सम्बुद्ध, भाग १ , पृष्ठ ७५ : सत्काय दृष्टी , विचिक्त्सा , शीलव्रत परामर्श, काम-छंद, प्रतिघ (अप्रिय के प्रति द्वेष), रुप-राग, अरुप-राग, अस्मिताभाव(अहंभाव ), औद्धत्य(बैचेनी), अविद्या  

३ . https://en.wikipedia.org/wiki/Th%C3%ADch_Qu%E1%BA%A3ng_%C4%90%E1%BB%A9c

४. जयमंगल अट्ठगाथा 

५ . आटानाटिय सुत्त , ३२ दीघ निकाय 

६. सैंतीस बोधिपक्षीय धर्म, डॉ. भदंत सावंगी मेघंकरजी

७. आळवक सुत्त, संयुक्त निकाय १.१० 

७. विशुद्धिमग्ग, भाग-१ , ४:पृथ्वी कसिण निर्देश 

९. मुनि सुत्त, सुत्त निपात - २१८  

१० . महामंगल सत्त,  संयुक्त निकाय २.४ 


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