सुख आये नीचे नही, दुख आये नही रोय||
दोनों मे समता रहें, उत्तम मंगल होय॥
(सुधार हेतु आवश्यक सुचना ओंका स्वागत है)
६.
शील: शील तो धर्म (शील, समाधि, प्रज्ञा) का पहला प्रमुख अंग है। उसे तीन रास्तो स्वच्छ रखा जाता है। देह कर्म, वाणी कर्म व विचारोंसे (मन कर्म ).
एसा कोइ कर्म जिससें अपनी तथा औरों कि शांती भंग हो, तो समझें कि शील भंग हुआ।
यदि कोई पुलिसवाला चोर को पकडता है। तो ये ना समझे कि चोर कि शांती भंग हुयी। औरों कि शांति भंग कर के चोर ने जो स्वयं व्याकुलता कमाई है, उसे धर्मानुसार दंड दे कर न्यायव्यवस्था ने तो समाज कि व चोर कि भी शांति सुनिश्चित की है। तो इस प्रकार विचार परिपुर्ण हो।
समझें कि पिता ने पुत्र को परिक्षा के कारण डांटा। तो अगर पुत्र कि शांती नही बढी व विपरीत परिणाम से उसकी उद्धतता-क्रोध बढा तो समझे कि शील भंग हुआ। भले उद्देश्य कितना भी मंगल क्यो न हो, मन मे करुणा-उपेक्षा-मैत्री न हो तो उनके दुश्मन द्वेष-व्याकुलता-वैरभाव जगह ले लेते है। तो मन के रास्ते ये दुश्मन वाणी या शरीर के रास्ते प्रकट हो कर काम बिगाड़ देते है। तो शील पहले मन का टुटता है, पश्चात वाणी का व पश्चात शरीर का।
बुद्ध कहते है: मनो पुबंगमा धम्मपाल, मनोसेट्ठा मनोमया...
७
सत्य: जो सत्य है उसे ही वाणी, लेख व आचारोंसे प्रकट करे। जैसे कोई आदमी अंधेपन का स्वांग करता हें तो नही असत्य लिखता या बोलता है यद्यपि आचार तो असत्य ही है। तो शील भंग ही हुआ ।
लेकिन फिर भी केवल सत्य ही कल्याणकारी नही होता। वह तभी कल्याणकारी होता है कि सुननेवाला औरसजिस के बारे मे बोल रहे हो उस का भी मंगल समायोजित है। यदि किसी चोर ने पुछा कि बताओ तुम्हारे मित्र की संपत्ति कहा छुपी हो, तो सत्य नही कहना चाहिये। सत्य तभी लाभदायक होगा जब उसमें मंगलकामना निहित हो।
८
वीर्य : पुरातन भाषा में इसका अर्थ है पुरुषार्थ माने तब तक कडी, प्रामाणिक, जागृति व विचारपुर्वक कष्ट करे। किस के लिये करें ? जो ( मंगल ) अधिष्ठान (पारमिता ) किया है ना, उस के लिये।
दृढ़ संकल्प करना एक बात। कार्य को आरंभ करना दुसरी बात। परंतु कार्य को उत्साहपुर्वक संपन्न करना इसे कहते है वीर्य/पुरुषार्थ । जो पारमी पुरुष ही नही, स्त्रियों मे भी विकसित करने कि क्षमता होती है।
९
. करुणा: सहानुभूति। के ये तो अपने मनसंस्कारोंके परिणामों से अज्ञ है। इनका आचरण तर्कसंगत, बुद्धिसंगत, कल्याणकारी, क्रोध, ईर्ष्या , वासना तथा भ्रम सेे भरा है।
नियती, निसर्ग तो उन्हे इसका दंड देगी ही। पर एसा ना हो रे!! अबोध है, अन्जान व भ्रमित है। प्रकृती करे एसा हो कि इन्हें दंड ना मिले। ये भाव सारे प्राणीमात्र (पक्षी, प्राणी-सरीसृप, जलचर, दृश्य-अदृश्य ) मन मे जागा ते समझो कि करुणा विकसित हुयी है।
१०
मैत्री : समस्त प्राणीयों के प्रति करुणा आने पर आगे कि पारमिता है। कि चलो कैसे इन्हे मै कुशल-अकुशल कर्मों के कारणों से, उनके (वर्तमान एवं भविष्य) के परिणामों से, उन्हे जडों सहित निर्मुक्त के लिये सद्धर्म सिखाऊ। चित्त विशोधिनी विपश्यना विद्या सिखाऊ(यदि मैं प्रमाणित विपश्यना आचार्य हो तो ही) या ऊससे परिचित करवाऊ. तो वें सन्मार्ग पर चले सद्धर्म के सारे लाभोंसे परिपुर्ण हो। सारे वर्तमान व भविष्य के भ्रम, दुर्गुणों व अकुशल कर्मोंसे सुदुर हो। इतना ही नही, भुतकाल के संस्कारोंसे भी समतापुर्वक मुक्त हो।
इसके लिये प्रयास करुंगा क्योकि मैत्री जागी है। अपने वैयक्तिक कामकाज व कारोबार को छोडकर (निष्क्रमण पारमिता ) थोडा ही सही अपनी क्षमता नुसार लोककल्याण करु!! ये यह मैत्री पारमिता
(सुधार हेतु सुचनाओं का स्वागत है।)
क्रमशः प्रत्येक पारमिता कि तीन उप-पारमिताये.अर्थात कुलमिलाके १०*३=३० पारमितायें।
शब्दांकन, लेखन: संबोधन धम्मपथी
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